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जा कि गर्वामहम चू जां खुश आगदस्ता । मर्गमन दरवास चंग अन्दर जदस्त ॥
अर्थात् मृत्यु मुझे जीवन के सदृश प्रिय है- उसके बाद मुझे पुनः जीवन प्राप्त होगा । यों इस्लाम अपने मूल सिद्धान्त में पुनर्जन्म स्वीकार नहीं करता । ईसाई धर्म के संबंध में स्वामी प्रेमानंद कहते हैं, ईसाई धर्म के प्रथम प्रचलन के समय प्रधान प्रचारक पुनर्जन्मवाद को मानते थे, परन्तु मध्यकाल में इसे अस्वीकार कर दिया और इसमें विश्वास करने वालों को "श्रापित" कहा। मैं यहां उन विदेशी विद्वानों का सविस्तार उल्लेख नहीं करके केवल यही कहूँगा कि स्पिनोजा, हर्टली प्रीस्टले, लिबनिज, इमर्सन, वाल्टमिटमेन गेटे सभी पुनर्जन्म में विश्वास करते थे। कवियों की तो लम्बी सूची है। तिब्बती लामा गोविन्दजी ने अपने गुरु टोमोगिले रिमपूछे के पुनर्जन्म का उनकी भविष्यवाणी के आधार पर वर्णन भी किया है। जैन धर्म का तो, कर्मवाद के साथ-साथ यह आधारभूत सिद्धान्त है, जिस पर आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि ने सविस्तार वर्णन किया है। आधुनिक परामनोविज्ञान की महत्वपूर्ण उपलब्धि मुमुर्षु का दिव्य दर्शन एवं परकाया प्रवेश हैं। यों योग दर्शन, योगवासिष्ठ, भोजवृत्ति, तंत्रागमों में भी परकाय प्रवेश का वर्णन है । तत्व वैशारदी व योग वर्तिका में परकाय प्रवेश की पद्धति भी बतायी गयी है। भारतीय वाङ्मय में ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं। शंकराचार्य, राजा शिखिध्वज की पत्नी चूड़ाला की कथा तो विख्यात है। आलिवर लाज, मोशिये हुरावेल, तिब्बती लामाओं के नाम उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने यह सिद्धि प्राप्त की थी । ( दृष्टव्य साप्ताहिक हिन्दुस्थान - १७.५. १९५९ में जनरल एल. पी. फेबेल का संस्मरण) । डब्लू. टी. स्टीड द्वारा परलोकगत जूलिया की मरणोपरान्त अवस्था का वर्णन स्वामी प्रेमानन्द ने दिया है। इसी प्रकार हेमेन्द्र नाथ बैनर्जी, प्रमोदशंकर भट्ट (धर्मयुग - २४.७.१९६६) ने भी प्रमाण दिए हैं। सद्यः प्रकाशित ग्रन्थ "दि आवर आफ डेथ” (कार्लस ओसिस ) में मरते समय व्यक्ति की अवधारणाओं व दूतों का प्रामाणिक चित्रण किया है। भारतीय मनीषा ने यह स्पष्ट घोषणा की कि मनुष्य के जीवन में दो "क्षण" सर्वाधिक महत्व रखते हैं- जब प्राण का प्रथम स्पन्दन होता है और तदनन्तर जब उसका प्रयाण और निष्क्रमण । प्रथम क्षण में ही उसके जीवन की समग्रता अंकित होती है और अंतिम क्षण में भी मुक्त जीवन की। गीता में भी श्रीकृष्ण ने यही कहा कि मृत्यु के समय जैसी भावना होगी, वैसा ही अगला जन्म होगा । आज परामनोविज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान टाइरेल, विलियम कुत्स, जान रेण्डेल प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता हैं।
आधुनिक जैविक विज्ञान के सिद्धान्तों ने भी मनुष्य की आनुवंशिकता पर विचार करते हुए ‘“जीन” की सार्थकता और महत्ता निर्विवाद बतायी है। मैंडेल के अनुसंधान के पश्चात् आज वैज्ञानिक इस सत्य पर पहुंचे हैं कि जीन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी
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