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(३२) हम न देख पाएं, तब पूर्व जन्म में उसके अनुरूप कर्म निश्चय किए होंगे (बांग्ला ग्रन्थ)। डॉ. काणे ने “धर्म शास्त्र का इतिहास" (पंचम भाग अध्याय-३५) में कर्म
और पुनर्जन्म के सिद्धान्त की विस्तृत समीक्षा की है। उनका मत है कि "इस सिद्धान्त ने सहस्रों वर्षों तक कम से कम उपनिषद् काल से संपूर्ण भारतीय चिन्तन, सभी हिन्दुओं, बौद्धों, जैनों को प्रभावित किया है। कर्म ही जन्म-जन्मान्तर का हेतु है। यथा,
लब्धा निमित्तम् व्यक्तं व्यक्ताव्यक्त भवतत्युत ।
यथायोनि यथाबीजं स्वभावेन बलीयसा ॥ अब तो पश्चिम में भी परामनोविज्ञान के अनुसंधानों और जैविक सिद्धान्तों ने पुनर्जन्म की नूतन व्याख्या और उसकी संपुष्टि की है। भारतीय चिन्तनधारा में ही नहीं, पश्चिम में भी हेरोडोटस, पेथोगोरस ने पुनर्जन्म पर आस्था रखी। प्लेटो पूर्व
और उत्तर जन्म में विश्वास करता था। एम्पीडकिल्स ने अपने पूर्व जन्मों का विवरण तक दिया था। कुछ विदेशी लेखकों की यह भ्रान्त धारणा रही है कि भारत में उपनिषदों के पूर्व वैदिक वाङ्मय में पुनर्जन्म की मान्यता प्राप्त नहीं होती (दृष्टव्य गफः फिलासफी आफ दि उपनिषद एवं जी. डब्लू ब्राउन आदि के लेख)। वस्तुतः पुनर्जन्म का तात्विक विवेचन जितना भारत में हुआ है, उतना अन्यत्र किसी देश में नहीं। यह ध्यान रखना चाहिए कि यद्यपि षट्दर्शनों में एक दूसरे की मान्यताओं का विरोध-प्रतिकार मिलता है, पर सबने प्रायः कर्म व पुनर्जन्म को स्वीकार किया। बौद्ध
और जैन धर्म तो इसमें अटूट विश्वास करते हैं। शतपथ ब्राह्मण की भृगु आख्यायिका, उसमें प्रयुक्त पुनर्जन्म-पूर्वजन्म आदि के प्रचुर प्रयोग आवागमन के प्रमाण हैं। उपनिषदों में मरणोपरान्त आत्मा का देवयान-पितृयान मार्गों से जाना बताया है, कठोपनिषद् में नचिकेता का तीसरा वर है- मैं किस प्रकार पुनर्जन्म दूर करूं ? यमाचार्य पूर्वजों की महायात्रा का भी उल्लेख करते हैं।
योनि मन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः ।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म तथा श्रुतम् ॥५-७॥ छांदोग्य श्रुति में आत्मा की "जायस्व-म्रियस्व" गति है। श्वेताश्वतर, प्रश्न, मुण्डक, ऐतरेय उपनिषदों में भी पुनर्जन्म का विवरण है। श्रीमद्भगवद्गीता में तो जन्म-जन्मांतर का प्रचुर वर्णन श्री कृष्ण ने किया है "जातस्य हि ध्रुवोमृत्यु, ध्रुव जन्म मृतस्य च" यह शाश्वत सिद्धान्त है। कुछ संदर्भ उसमें ये हैं (अध्याय ४-५, ७-८, ८-१६, १८-२१ आदि)। आदि शंकराचार्य कहते हैं "पुनरपि जननं, पुनरपि मरणं, पुनरपि जननि जठरे शयनम् ।" श्री शुक विरचित द्वादशाक्षर स्तोत्र में प्रार्थना है
गतां गतेन श्रान्तोऽस्मि दीर्घ संसार वर्मसु । . पुनर्नागन्तु विच्वामि त्राहि मां मधुसूदनम् ॥
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