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(३०)
सूर्यः सोमो यमः कालो महाभूतानि पंच च । एते शुभाशुभस्येह कर्मणो नव साक्षिणः ॥
शुभाशुभ कर्म के ये ही साक्षी हैं। गरुड़ पुराण (२२ अध्याय) में कर्म विपाक का विशद वर्णन है। डा. पा. वा. काणे ने कर्म विपाक का अर्थ इस प्रकार किया है “कर्म विपाक का अर्थ दुष्कृत्यों या पापों के फलवान होने का ही द्योतक है। योगसूत्र (२-१३) में कर्म विपाक के लिए कहा गया है “सतिमूलेताद्विया को जात्यायु भोगाः "। सभी क्लेश (पांच) बताए गए हैं। मूल में रहने से कर्म फलारम्भी होते हैं, पर उनके उच्छिन्न होने पर ऐसा नहीं रहता। कर्म विपाक जाति, आयु तथा भोग से होता है। एक भोग का हेतु होने से एक विपाकारम्भी तथा आयु और भोग दोनों से द्विपाकारम्भी होता है। प्रथम के दो भेद हैं नियति विपाक और अनियति विपाक । पतंजलि के व्यास भाष्य में कहा गया है " इस जन्म के संस्कार संचित होने से शारीरिक प्रकृति में परिवर्तन करता है और आयु एवं भोग फल देते हैं। कर्म ही इसका कारण हैं।” इस कारण (सूत्र १४ ) में कहा है कि जाति, आयु तथा भोग पुण्य और पाप के सुख और दुःख देते हैं । १५ सूत्र में संस्कार का विवेचन किया है। जाति से तात्पर्य कीट, पशु आदि की योनि, आयु से अल्प जीवन एवं भोग से नारकीय यातनाएं हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति (३.१३१) में भी कर्म विपाक शब्द का प्रयोग इस प्रकार हुआ है “विपाकः कर्मणां प्रेत्य केषां चिदिह जायते ।" "प्रायश्चित्त सार" में भी विस्तृत वर्णन है। पुराणों में वामन पुराण, ब्रह्म पुराण, मार्कण्डेय पुराण, वराह पुराण, विष्णुधर्मोत्तर पुराण आदि में कर्म विपाक का उल्लेख नारकीय भोग के साथ प्रायश्चित्त आदि का विवेचन है। कुछ ग्रन्थों में व्याधि, विपर्यय, कृचन्व आदि के लिए देव - पूजा भी निर्धारित की गई है। विवेक चूड़ामणि में आचार्य शंकर कहते हैं, " अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।" "प्रारब्ध विचार' में शंकराचार्य ने कर्म और कर्म फल पर विचार किया है । वे कहते हैं 'फलोदयः क्रिया पूर्वो निष्क्रियो न हि क्वचित्' (४४७) इसके साथ ही वे कहते हैं
ज्ञानोदयात्पुरारब्धकर्म
ज्ञानाननश्यति ।
अदत्त्वा स्वफलं लक्ष्यमुद्दिश्योत्सृष्ट बाणवत् ॥४५४॥
अर्थात् लक्ष्य की ओर छोड़ दिए गए बाण के समान ज्ञान के उदय से पूर्व ही आरम्भ हुआ कर्म अपना फल दिए बिना ज्ञान से नष्ट नहीं होता । विद्वान का प्रारब्ध कर्म अवश्य ही बलवान होता है। उसका क्षय भोगने से ही संभव है
प्रारब्धं - बलवत्तरं खलु विदां भोगेन तस्य क्षयः । सम्यग्ज्ञान हुताशनेन विलयः प्राक्सञ्चितागामिनाम् ॥४५४ ॥
शंकराचार्य के अनुसार कर्मणानिर्मितो देहः प्रारब्ध टतस्य कल्प्यताम् । देह कर्मों से है प्रारब्ध भी उसी से है । आत्मा कर्मों से नहीं बना है । प्रारब्ध कर्म का क्षय
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