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४३-४४) में कर्म फल के लिए कहा गया है कि अच्छे पेड़ में बुरा फल नहीं लगता है, न बुरे पेड़ में अच्छा। प्रत्येक पेड़ अपने फल के द्वारा ही पहचाना जाता है, क्योंकि लोग कांटों के पेड़ से गूलर नहीं तोड़ते हैं, और न कटैले झाड़ से अंगूर ।
इस्लाम धर्म में भी अंतिम निर्णय कयामत के दिन पर अल्लाह के समक्ष सबको अपने कर्मों का विवरण देना होगा। जन्नत उनके लिए है, जिन्होंने शुभ कर्म किए ( अल बकर २५ ) यही कहा गया है कि जिन्होंने सत्कर्म किए हैं- ईश्वर को मानते हैं, वे किसी धर्म के हों, प्रभु ! उन्हें पुरस्कृत करेगा। अल कुरान (xii) में कहा गया है कि हे प्रभो ! जो मुझे पाप कर्म की ओर ले जाते हैं, उससे तो कारागृह भी अधिक प्रिय है । पुन: कहा गया है कि जो परलोक में विश्वास नहीं करते हैं, वे घमण्ड से सत्य को अस्वीकार करते हैं (अध्याय १६) अलहजारत ( १२-१२ ) में कहा है कि सबसे अधिक मान्य वह है जो संयमी है "इना अकरामाकुम इन्दल्लाहि अतकाकुम" ।
मुहम्मद साहब ने अनेक बार सत्कर्म पर जोर दिया है। डॉ. निजामुद्दीन ने स्पष्ट किया है कि इस्लाम ने कर्म के स्वरूप पर दो दृष्टियों से विचार किया है (9) लौकिक कर्म, जिनका समाज से संबंध है । (२) आध्यात्मिक कर्म, जिनका संबंध नमाज, तकवा, जकात से है । ईमान का विशिष्ट महत्व है। सूरे कहफ में कहा है कि ईमान वालों के सत्कर्म कभी नष्ट नहीं होते। जीवन में आस्था एवं कर्म का संयोग अनिवार्य है। कुरआन उसी मनुष्य को श्रेष्ठ कहता है, जिसका आचरण शुद्ध है और कर्म . पवित्र है "इनलाह ला युगेयिरुमाबि कौमिन हत्ता युगैयिरू मा बि अनुफुसिहिम" (कुरआन अर्रअद १३-११) ।
यहूदी धर्म में भी कर्म की व्याख्या का सार तत्व है कि वह मनुष्य धन्य है, जिस पर परमेश्वर कोई दोष नहीं लगाता और जिसकी आत्मा में छल कपट नहीं है ( अवस्ता २५) ईश्वर के घर में सेवक बनकर रहना अधिक श्रेयस्कर है, बनिस्पत अट्टालिका या मण्डप में । यहूदी धर्म भी कर्म फल में आस्था रखने का आदेश देता है, "धन्य है वह जो अधर्म पर नहीं चलता है और न पाप कर्म से जुड़ता है। वह नदी के कूल के वृक्ष के सदृश है, जो समय पर फल देता है, उसकी पत्तियां कभी नहीं मुर्झातीं, वह जो कुछ करेगा - उसके सत्कर्म सफल होंगे। कुकर्मी व अधार्मिक भूसी की भांति हैं जो अल्प हवा में ही उड़ जाती है। इन सभी धर्मों में हमारे कर्मों का सामान्य उद्देश्य सचेत जीवन, उच्च नैतिक अवधारणाएं, अनुभूति के वांछनीय रूपों की सृष्टि और मानवीय उत्कर्ष है ।
कर्म और पुनर्जन्म पर विचार करने के पूर्व हम कर्म विपाक का विश्लेषण करें क्योंकि पुनर्जन्म का सिद्धान्त तत्वतः कर्म विपाक पर ही निर्भर है। विपाक का अर्थ है "परिपक्व होना" "परिणाम" फल । कर्म की परिपक्व अवस्था ही कर्म विपाक अथवा कर्म फल है। मनुष्य के प्रत्येक कर्म के पांच साक्षी हैं।
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