________________
(३१) भोगने से ही होता है । पूर्वसंचित और आगामी कर्मों का क्षय तत्त्वज्ञान रूपी अग्नि से | आत्मा और ब्रह्म की एकात्मता को जानने वाला किसी प्रकार के कर्म में लिप्त नहीं होता । मैं ब्रह्म हूँ यह ज्ञान होने पर कोटि कल्पों के कर्म नष्ट हो जाते । (४५०) आचार्य शंकर कहते हैं कि 'खेर्यथा कर्मणिसाक्षि भावो' - मनुष्य के कर्मों का सूर्य ही साक्षी भाव है। वे कर्म बंध के सम्बन्ध में कहते हैं संसार रूपी वृक्ष का बीज अज्ञान है - देहात्मबुद्धि अंकुर है - राग पत्ते हैं और कर्म जन्म है व उससे उत्पन्न हुआ दुःख ही फल है । मोक्ष का हेतु आसक्तियुक्त कर्मों का सर्वथा त्याग है। वस्तुतः लिंग शरीर भूतों से उत्पन्न होकर ही वासनायुक्त कर्म फलों का अनुभव कराता है। निर्विकल्प समाधि से वासना ग्रंथियों का नाश और वासनाओं के नाश से कर्मों का नाश होता है - तदनन्तर सर्वत्र निरन्तर स्वरूप की स्फूर्ति होती है 'समस्त वासना ग्रन्थेर्विनाशोऽखिल कर्म नाशः (३६४) इस प्रकार विवेक चूड़ामणि में आद्य शंकराचार्य ने कर्म के संबंध में प्रचुर विचार किया है । यदि इसकी तुलना हम जैन कर्म तत्त्व से करें तो कुछ अंगों में साम्य दिखाई पड़ेगा ।
महाभारत के वन पर्व में लिखा है कि स्वर्ग प्राप्ति पर यज्ञादि के पुण्यों का अंत होने पर पुनः जन्म लेना पड़ता है ( वन पर्व २५९ - ६० ) । अनुशासन पर्व में गौतमी पुत्र की सर्पदंश से मृत्यु पर कहती है कि यह कर्म का फल है। यहीं पर काल का महत्वपूर्ण कथन है कि बालक की मृत्यु उसके पूर्व जन्म के कारण है। विराट पर्व (२०-१४) में यही कथन है । शान्ति पर्व में आत्मा के छः रंग बताए हैं, कृष्ण, धूम्र, नील, रक्त, पीत व शुक्ल । उपनिषदों और गीता में ज्ञान द्वारा कर्म विपाक के नष्ट होने का उल्लेख है। मुण्डक कहता है “क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे (२.२.५ ) पर ब्रह्म आत्म तत्व का ज्ञान सब कर्मों को नष्ट कर देता है। श्वेताश्वतर का भी यही मत है (३.५) योग वासिष्ठ ( २.४.८) में कर्मक्षय के लिए पौरुष का महत्व बताया गया है। वाल्मीकि में राम वन गमन के समय दशरथ व कौशल्या अपने दुःख को पूर्वजन्मों के पाप का फल बताते हैं। दशरथ कहते हैं कि “ मनुष्य कर्माधीन है और उसे कर्मों का फल भोगना पड़ता है। आम के पेड़ को काटकर ढाक सींचना पागलपन है, वही मैंने किया है।" कौशल्या भी पुत्र वनवास का कारण पूर्व जन्म में किए गए दुष्कर्म का फल बताती है। रामायण में यत्र तत्र कर्मफल का वर्णन है। कर्म विपाक का सम्बन्ध पुनर्जन्म से है ।
जैन धर्म के कर्मतत्त्व का विचार करने के पहले हमें पुनर्जन्म सबंधी विचार धारा का अवलोकन करना आवश्यक है। कर्मफल का तात्पर्य यह नहीं कि व्यक्ति स्वातंत्र्य का अभाव है अथवा मनुष्य केवल नियति का दास है, कर्मफल अनिवार्य होते हुए भी मनुष्य की स्वातंत्र्य शक्ति का विरोध नहीं करता । न वह नैराश्य का प्रतिपादन करता है। इस संबंध में डॉ. सतीश चन्द्र वंदोपाध्याय का " तत्त्व जिज्ञासा" (कर्म एवं कर्मफल पृ. ५४) का कथन है कि यदि इस जीवन में सुख दुःख भोगने का कारण
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org