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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
करना है,” क्योंकि बालक यदि दुर्गुणों से युक्त, अर्थात् रोगी, क्रोधी, आलसी या विकलांग, आदि होगा, तो उससे माता-पिता तो दुःखी होंगे ही, उसके साथ ही उसका भविष्य भी अन्धकारमय लगने लगेगा, क्योंकि वह स्वयं का कार्य स्वयं ही नहीं कर सकेगा, उसे अपने प्रत्येक कार्य हेतु पराश्रित रहना पड़ेगा, अतः बालक दोषों से रहित एवं परिपूर्ण अंग वाला हो- इस अपेक्षा से यह संस्कार किया जाता है । हिन्दू परम्परा में इस संस्कार को करने का मुख्य प्रयोजन गर्भस्थ शिशु को पुत्ररूप प्रदान करना है, किन्तु पं. श्रीराम शर्मा के अनुसार यह संस्कार गर्भस्थ शिशु के समुचित विकास के लिए गर्भिणी स्त्री का किया जाता है, क्योंकि बालक को सुसंस्कारी बनाने के लिए सर्वप्रथम उसके जन्मदाता माता को सुसंस्कृत होना चाहिए। दिगम्बर-परम्परा में आचारदिनकर के अनुरूप ही यह संस्कार "गर्भ की पुष्टि तथा उत्तम संतान की प्राप्ति हेतु किया जाता है । '
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३. जातकर्म-संस्कार
वर्धमानसूरि के अनुसार " यह संस्कार जन्म - महोत्सव करने के उद्देश्य से किया जाता है।”३२ बालक या बालिका का जन्म होते ही जन्मदाता माता-पिता एवं परिजनों के हृदय में हर्ष व्याप्त हो जाता है और वे इस खुशी को सबके समक्ष प्रकट करने हेतु महोत्सव करते हैं, सर्वत्र वित्त का व्यय करते हैं। इस प्रकार जातकर्म-संस्कार का मुख्य प्रयोजन आनंद की अभिव्यक्ति करना है । हिन्दू-परम्परा में यह संस्कार पुत्र का प्रसव होने पर तथा उसके लिए शुभकामनाओं की अभिव्यक्ति करने हेतु किया जाता है। प्रत्येक माता-पिता अपने नवजात शिशु के लिए यह कामना करते हैं कि उसका जीवन सुखी एवं निरापद बने और उसे किसी प्रकार की कोई परेशानी न हो। इस आशय से प्रेरित होकर ही यह संस्कार किया जाता है। दिगम्बर- परम्परा में यह संस्कार शिशु के जन्म होने पर विधिपूर्वक माता को स्नान और सन्तान को आशीर्वाद प्रदान करने के उद्देश्य से किया जाता
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२६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ. ३८६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
३० षोडश संस्कार विवेचन, पं. श्रीराम शर्मा, पृ- ४.१२, अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा, प्रथम संस्करण १६६५.
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आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ. ३८६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
३२ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ. ३८६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२.
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धर्मशास्त्र का इतिहास ( प्रथम भाग ), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ. १६२, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण १६८०.
३४ आदिपुराण, जिनसेनाचार्य कृत, अनु.- डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व- उनचालीसवाँ, पृ. २६६, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण २०००.
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