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चार भेद किये गये है। जहाँ राग है, वहाँ माया एवं लोभ है और जहाँ द्वेष है । वहाँ क्रोध एवं मान कषाय है। दशवैकालिक सूत्र में कषाय को दुःख (तनाव) का कारण बताते हुए कहा है- चत्तारि एए कसिणा कसाया सिंचंति मूलाई पुणव्मवस्स' अर्थात-ये चारों कषाय पुर्नभव अर्थात् जन्म-मरण की जड़ को सींचते हैं।
उत्तराध्ययन सूत्र में भी राग-द्वेष एवं कषाय को ही संसार में बार-बार जन्म मरण का कारण बताया है। संसार के परिभम्रण के कारण राग-द्वेष है और राग-द्वेष के कारण तनाव है क्योकि राग-द्वेष एवं तद्जन्य कषाय व्यक्ति के दुःख के कारण है। दुःख के कारण व्यक्ति विलाप अर्थात् आर्तध्यान करता है। सदैव आर्त एवं रौद्र ध्यान करता हुआ व्यक्ति कर्मों को बांधता है, जो संसार में पुनर्भव का हेतु बनते हैं।
जैनदर्शन के ग्रन्थों में राग-द्वेष व कषाय को ही व्यक्ति के दुःख का मूल भूत कारण माना गया है और यह दुःख ही तनाव है। जैन ग्रन्थों में इस बात को किस प्रकार सिद्ध किया गया है, इसकी चर्चा आगे के अध्यायों में करेंगे।
(ख) आचारांग में राग द्वेष व कषाय
आचारांग के दूसरे अध्ययन के पहले उद्देशक का नाम 'लोक-विजय' है। लोक का सामान्य अर्थ संसार होता है, अर्थात् जहाँ लोग रहते हैं वह लोक है, किन्तु यहाँ लोक का अर्थ संसार से भिन्न है। यहाँ लोक का अर्थ है वे मनोभाव या वृत्तियाँ जिससे प्राणी का संसार में परिभ्रमण होता है, अर्थात् राग-द्वेष व कषाय भाव।
विजय का अर्थ है 'जीतना'। लोक-विजय का अर्थ हुआ – राग-द्वेष व कषाय को जीतना, उनसे ऊपर उठना या मुक्त होना। व्यक्ति के कर्मबंध का,
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