Book Title: Jain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Author(s): Trupti Jain
Publisher: Trupti Jain

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Page 309
________________ 290 है। एक बार पूर्णतः तनावमुक्त होने पर वापस व्यक्ति तनावयुक्त नहीं होता क्योंकि इस अवस्था में तनाव के कारणों का अभाव होता है। 2. औपशमिक चारित्र - औपशमिक भाव को उपशम भी कहते हैं। कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी उनके फल देने की शक्ति को कुछ समय के लिए दबा देना उपशम है। तनाव के कारणों के होने पर भी उससे तनावग्रस्त नहीं होना उपशम है। वासनाओं और कषायों का दमन कर देने पर जो स्थिति होती है, वह औपशमिक भाव है। इनके कारण जो तनाव उत्पन्न होता है उसे कुछ काल के लिए दबा दिया जाता है, परन्तु वे दमित वासनाएँ कालान्तर में सजग होकर पुनः तनाव उत्पन्न कर देती हैं। इस प्रकार सम्पूर्णतः तनावमुक्ति व आत्मशुद्धि की अवस्था की प्राप्ति नहीं होती। जैसे पानी में फिटकरी डालकर गंदगी को कुछ समय के लिए दबा दिया जाता है, किन्तु हल-चल होने पर गंदगी पुनः ऊपर आ जाती है। इसी प्रकार उपशम का काल समाप्त होते ही चित्त पुनः अशांत हो जाता है और पुनः व्यक्ति तनावग्रस्त हो जाता है। क्षायोपशमिक - क्षयोपशमिक शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है -'क्षय' और 'उपशम'। इस चारित्र में कुछ तनाव के कारणों का निराकरण अर्थात् क्षय हो जाता है और कुछ कारणों की सत्ता या उपस्थिति बनी रहती है। केवल उनके विपाक या उदय को कुछ समय के लिए रोक दिया जाता है, यही क्षायोपशमिक चारित्र है। एक अन्य दृष्टि से जैनदर्शन के तीन मूलभूत सिद्धान्त हैं - अपरिग्रह, अहिंसा और अनेकांत। हिंसा का कारण परिग्रह है, अतः यहाँ मैंने प्रथम स्थान अपरिग्रह को दिया है। अपरिग्रह और तनाव मुक्ति - पदार्थ असीम हैं और उन्हें प्राप्त करने की इच्छाएँ या आकांक्षाएँ भी आकाश के समान असीम है। असीम को प्राप्त करने की चाह ही तनाव है और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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