________________
348
अपनी वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ जब भविष्य की इच्छाओं की पूर्ति के लिए अधिक धन का संचय करना चाहता है, तो यह संचयवृत्ति व्यक्ति में तनाव उत्पन्न करती है। सामान्य व्यक्ति का मानना है कि धन हो उसकी हर समस्या का समाधान कर सकता है, धन ही उसे सुख, शांति और सुरक्षा दे सकता है, किन्तु यह एक भ्रम है। इस द्वितीय अध्याय में उत्तराध्ययन के एक सूत्र 'वित्तेण ताणं ण लभे पमत्ते' के द्वारा यह समझाने का प्रयास किया गया है कि परिग्रह ही दुःख, अशांति और तनाव को हेतु है। धन किसी की सुरक्षा नहीं कर सकता, अपितु वह तो सुरक्षा की चिन्ता एवं लोभ को जन्म देता है। जैनाचार्यों ने कहा है कि लाभ से तो लोभ बढ़ता जाता है।
लोभजन्य दूसरों के शोषण की प्रवृत्ति भी व्यक्तियों में तनाव उत्पन्न करती है। वर्तमान में जो अर्थतंत्र की पूँजीवादी प्रणाली प्रचलित है उससे समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया है। एक पूँजीपति या शोषक वर्ग और दूसरा श्रमिक या शोषित वर्ग। पूँजीपति अपनी पूँजी की सुरक्षा में चिंताग्रस्त रहता है तो गरीब धन के अभाव अर्थात् विपन्नता की स्थिति, ईर्ष्या-भाव एवं धन की चाह के कारण तनावग्रस्त रहता है। इस विषय में जैन आचार्य हरिभद्र ने यह बताया था कि श्रमिकों को उनके श्रम के प्रतिफल के रूप में पूरा पारिश्रमिक दिया जाना चाहिए। इससे शोषण समाप्त होगा और समाज में समरसता बढ़ेगी।
इसी दूसरे अध्याय में आगे हमने पारिवारिक असंतुलन और तनाव के सह-सम्बन्ध को बताया है। इस प्रसंग में मनोवैज्ञानिकों के द्वारा दी गई एक संतुलित एवं सुखी परिवार की अवधारणा को भी प्रस्तुत किया गया है। आगे इस अध्याय में पारिवारिक अशांति के कारणों को दो वर्गों में विभाजित किया गया है –वैयक्तिक कारण - ये वे कारण हैं, जो परिवार के सदस्यों के स्वभाव, विचार आदि में भिन्नता होने से परिवार में तनाव उत्पन्न करते हैं। दूसरे. अवैयक्तिक कारण – ये वे कारण होते हैं, जो परिवार के किसी एक सदस्य
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org