Book Title: Jain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Author(s): Trupti Jain
Publisher: Trupti Jain

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Page 373
________________ उपलब्ध होती है। इसकी चर्चा भी हमने इस चतुर्थ अध्याय में प्रस्तुत की है । साथ ही इन षट् लेश्याओं के आधार पर व्यक्ति के व्यक्तित्व का तनाव से सह-सम्बन्ध भी बताया गया है । 353 तनाव का मूल हेतु रागादि भाव और तद्जन्य कषाय है । राग-द्वेष में से भी राग की प्रधानता रही हुई है। इसे आसक्ति, तृष्णा, कामना और इच्छा रूप माना गया है। राग से द्वेष और राग-द्वेष से ही क्रोधादि चार कषायों का जन्म होता है। राग से लोभ और लोभ से माया का जन्म होता है, दूसरी ओर द्वेष से क्रोध का और क्रोध से मान की अभिव्यक्ति होती है । यही क्रोध, मान, माया और लोभ व्यक्ति में तनाव के स्तर को बढ़ा देते हैं। जैनदर्शन में कषायों की तीव्रता एवं मन्दता के आधार पर ही तनाव (दुःख) की तीव्रता व मन्दता को समझाया गया है। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी एवं संज्जवलन - यह कषाय चतुष्क तनाव की ही तीव्रता व मन्दता के स्तर को बताता है । प्रस्तुत चतुर्थ अध्याय में इस कषाय चतुष्क से तनावों के सह- सम्बन्ध का वर्णन किया गया है। साथ ही इसमें भगवतीसूत्र एवं कर्मग्रंथों के आधार पर भी इन कषायों के स्वरूप की चर्चा भी की गई है और तनावों से इनका कैसा सह-सम्बन्ध है ? यह बताया गया है । तनाव का जन्म मन में होता है किन्तु तनाव को उत्पन्न करने वाले तत्त्वों में इच्छाओं एवं आकांक्षाओं की एक अहम् भूमिका रही हुई है। व्यक्ति में अनुकूलताओं को पुनः - पुनः प्राप्त करने की इच्छा होती है तथा प्रतिकूलता से दूर भागने की इच्छा होती है। इन दोनों ही स्थितियों में व्यक्ति तनावग्रस्त ही रहता है। प्रस्तुत चतुर्थ अध्याय में उपर्युक्त सभी विषयों की विस्तार से चर्चा की गई है और इस प्रकार जैन धर्म दर्शन की तनावों से सम्बन्धित विभिन्न अवधारणाओं, जैसे त्रिविध आत्मा, चतुर्विध कषाय, चतुर्विध मन, षट्विध लेश्या. आदि की चर्चा प्रस्तुत अध्याय में की गई। चतुर्थ अध्याय तक हमने तनावों के विविध रूपों की परिभाषा, उनके स्वरूप, उनके कारणों एवं जैनदर्शन के त्रिविध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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