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मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जैनदर्शन यह मानता है कि चित्त या मन का अशांत होना ही तनाव है, जिसका शरीर पर प्रभाव पड़ता है। तनाव - प्रबंधन के मनोवैज्ञानिक अर्थ के आधार को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि दैहिक एवं मानसिक प्रक्रियाओं का विचलन ही तनाव है। दैहिक स्तर पर होने वाले असामान्य परिवर्तन को तनाव कहा गया है, किन्तु तनावों का एक मानसिक पक्ष भी है। वह मन के उत्पीड़न की अवस्था है। तनाव को एक दैहिक संवेदना के रूप में देखा जा सकता है, किन्तु जैनदर्शन के अनुसार तनाव का जन्म मन या चित्त की चंचलता या अस्थिरता या विकल्पयुक्तता से ही होता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों की भूल यह है कि वे तनाव के दैहिक पक्ष की असामान्य अवस्था को ही तनाव मान रहे हैं, किन्तु उसके पीछे रहे हुए मानसिक हेतु को विस्मृत कर देते हैं । इसलिए इस अध्याय में तनाव प्रबंधन के लिए उसके मानसिक एवं आध्यात्मिक पक्ष पर भी विस्तार से विवेचन किया गया है ।
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जैनधर्मदर्शन का यह मानना है कि मन की वृत्तियाँ और उनके दैहिक प्रभाव का नाम ही तनाव है और इस के विपरीत आत्मा या चेतना की निर्विकल्पदशा ही तनावमुक्ति है । वस्तुतः जैनग्रन्थों में तनाव शब्द का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है, किन्तु उनमें इसके पर्यायवाची अनेक शब्दों का उल्लेख मिलता है, जैसे - दुःख, चिन्ता, आतुरता, आर्तता, चिन्ता भय आदि ।
सामान्य व्यक्ति का यह मानना है कि भौतिक सुख-सुविधाएँ व्यक्ति को तनावमुक्त बनाती हैं। जितने सुख-सुविधा के साधन अधिक होंगे, व्यक्ति को उतनी ही अधिक सुख-शांति प्राप्त होगी, किन्तु ऐसा होता तो अमेरिका या अन्य विकसित देश पूर्णतः सुखी व तनावमुक्त होते, किन्तु स्थिति यह है कि आज वे सर्वाधिक तनावग्रस्त हैं । मस्तिष्क के स्थिलीकरण की दवाईयों या नींद की गोलियों की खपत इन्हीं देशों में सबसे अधिक होती है। जैन धर्म में तो भौतिक सुख की लालसा को भी दुःख का हेतु ही कहा है। भौतिक सुख की चाह अतृप्तता की निशानी है, चाहे एक इच्छा पूर्ति होने पर क्षणिक तृप्ति मिलती हो,
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