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2. शरीर की स्वस्थता, सुन्दरता का गर्व होने पर अशुचि भावना का चिन्तन
करें। यह शरीर अस्थि, मज्जा, रक्त, भल-मूत्र आदि से बना है। किसी भी समय सुरूपता कुरूपता में परिवर्तित हो ही जाती है।
3. सत्ता, सम्पत्ति, सुविधा, सत्कार, सम्मान, स्वजन आदि के आधार पर
अहंकार पुष्ट होने पर विचार करना चाहिए कि ये सब मेरे पुण्य-कर्म के उदय से हैं, अगर मैंने अहंकार किया तो यह पुण्य पाप में परिवर्तित हो
जाएगा। 4. मान विजय के लिए मार्दव धर्म का पालन श्रेष्ठ है। मार्दव का अर्थ है
मृदुभाव। 5. धन-सम्पत्ति के अधिक मिलने पर उसका उपयोग दूसरों की
सेवा-सहायता में करें। 6. ऊँच-नीच की भावना छोड़कर सभी को एक समान समझें। आचारांगसूत्र में कहा है -“यह जीवात्मा अनेक बार उच्चगोत्र में जन्म ले चुका है, तो अनेक बार नीच गोत्र में भी, इस प्रकार विभिन्न गोत्रों में जन्म लेने से न
कोई हीन होता है और न कोई महान् । 7. चिन्तन करें परमाणु, पुद्गलों का स्वभाव ही सड़न-गलन है। सभी पदार्थ
नष्ट हो जाते हैं, अतः किसी भी वस्तु या व्यक्ति पर गर्व ना करें। . उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है – “मान का प्रतिपक्षी विनय है। मान विजय से विनय गुणों की प्राप्ति होती है। 90
मान पर विजय प्राप्त करने से व्यक्ति तनावमुक्ति की प्रक्रिया में आगे बढ़ जाता है। मान से विनय गुण की प्राप्ति होती है और विनय नम्रता सिखाता है। तन को झुकाना ही विनय नहीं है, बल्कि मन को झुकाने पर ही अधिक सम्मान
से असइं उच्चागोह, असहं नीआगोए। नी होणे, नो अइस्तेि .............. || - आचारांगसूत्र -1/2/3 माणं विजएणं मद्दवं .....................| - उत्तराध्ययनसूत्र, 29/69
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