Book Title: Jain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Author(s): Trupti Jain
Publisher: Trupti Jain

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Page 350
________________ 331 जैनदर्शन में चित्तवृत्ति के बदलने के फलस्वरूप उस व्यक्ति की चेतना का स्तर और उसका व्यवहार भी बदल जाता है, अतः व्यक्ति के बंधन और मुक्ति का सारा खेल उसकी मानसिक स्थिति पर निर्भर होता है। देश, काल, परिस्थिति के साथ बदलता हुआ मनुष्य का चित्त भिन्न-भिन्न रूपों में सामने आता है और उसी से उसकी लेश्या का भी निर्धारण होता है। लेश्या की विशुद्धि के लिए भावों का शुद्ध होना आवश्यक है। “लेश्या विशुद्धि के लिए भावो के प्रति जागरूकता आवश्यक है। 113 जैनदर्शन में व्यक्ति के स्वभाव और व्यवहार को असन्तुलित बनाने का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण लेश्या को माना जाता है। लेश्या द्रव्य-कर्म के साथ जुड़कर शुभ-अशुभ मनोभावों की संरचना करती है। अशुभ लेश्याओं में व्यक्ति का व्यक्तित्व अविकसित, असन्तुलित और तनावपूर्ण हो जाता है। उसका आचरण भी तदनुसार ही होता है। इसी कारण व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् नहीं बन पाता है। उसकी बुद्धि भ्रमित हो जाती है। कषाय की तीव्रता बढ़ जाती है। विवेक रहित और कषाय सहित व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन खो देता है। वह तनाव की तीव्रता से ग्रस्त बन जाता है। जिसके परिणामस्वरूप उसकी भावना भी मलिन हो जाती है। अशुभ लेश्या मन को चंचल बना देती है। मन की चंचलता व्यक्ति को स्वार्थी बना देती है। उसमे समायोजन एवं परिस्थितियों के साथ समझौता करने की क्षमता क्षीण हो जाती है। कु. शांता जैन अपनी पुस्तक लेश्या और मनोविज्ञान में लिखती हैं कि -"बिना समायोजन के शारीरिक, मानसिक और भावात्मक व्यक्तित्व के विघटन की संभावनाएं बनी रहती हैं। 114 ऐसी स्थिति में तनाव मिटाने के लिए किया गया प्रयास भी सफल नहीं हो पाता। ॥ लेश्या का मनोवैज्ञानिक अध्ययन – कु. शान्ता जैन, पृ. 23 14 लेश्या और मनोविज्ञान - कु. शांता जैन, पृ. 148 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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