Book Title: Jain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Author(s): Trupti Jain
Publisher: Trupti Jain

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Page 348
________________ विकल्प मुक्त शांत चित्त में तनाव उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि इच्छा, आकांक्षा और अपेक्षा रूपी लहरें चित्त को अशांत बनाती हैं और अशांत चित्त में स्वस्वरूप का चिंतन नहीं होता है। जिस प्रकार पानी में यदि मिट्टी आदि गन्दगी मिली हो, और हवा के झोंकों से लहरें उठ रही हैं तो तल की वस्तु नहीं दिखाई देती है, उसी प्रकार जब तक चित्त या मन में चंचलता रहती है, तब तक साक्षीभाव की साधना जो धर्म का मूल आधार है, सम्भव नहीं है । पुनः धर्म के स्वस्वभाव की चर्चा करते हुए यही कहा जाएगा कि समता से ही साक्षीभाव उत्पन्न होता है, किन्तु मानवीय व्यवहार ममता पर आधारित होता है, जो तनाव का हेतु है। डॉ. सागरमल जैन ने समता को धर्म व ममता को अधर्म कहा है। 12 जब सुख - दुःख, मान-अपमान, लाभ-हानि आदि की अनुकूल परिस्थितियों में मन में संतोष न हो, चाह और चिंता बनी रहे और प्रतिकूल स्थितियों में मन दुःख और पीड़ा से भर जावे तो हमें समझ लेना चाहिए कि यह तनाव है, विभाव है और जो विभाव है, वह स्वस्वभाव नहीं हो सकता, जो स्वस्वभाव नहीं हो सकता है, वह धर्म भी नहीं है, अपितु अधर्म ही है । धर्म वह है जिसमें व्यक्ति अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियों में अपने मन को, अपनी चेतना को निराकुल बनाए रखें, मानसिक समता व शांति को भंग नहीं होने देवें। यही तनावमुक्ति का प्रयास है। आदरणीय गोयनकाजी ने बहुत ही सुन्दर बात कहकर कुछ ही पंक्तियों में तनावमुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया है 12 धर्म का मर्म Jain Education International सुख दुःख दोनों एक से, मान और अपमान । चित्त विचलित होवे नहीं, तो सच्चा कल्याण । । जीवन में आते रहे पतझड़ और बसंत । मन की समता न छूटे, तो सुख शांति अनंत । । विषम जगत में चित्त की समता रहे अटूट । तो उत्तम मंगल जगे, होये दुःखों से छूट । । - 329 - डॉ. सागरमल जैन, पृ.20 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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