Book Title: Jain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Author(s): Trupti Jain
Publisher: Trupti Jain

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Page 346
________________ 327 हो जाती है। व्यक्ति शांत ही रहता है, क्योंकि शांतता उसका स्वभाव है और वह क्रोधित किसी बाहरी कारण से ही होता है। जैसे पानी का स्वभाव शीतलता है, किन्तु आग का संयोग होने से वह उष्ण हो जाता है और आग का वियोग होते ही धीरे-धीरे वह स्वतः शीतल हो जाता है। कहने का तात्पर्य यही है कि व्यक्ति का स्व-स्वभाव में होना ही उसका धर्म है, और इसी धर्म से तनावमुक्ति संभव है। गीता में कहा गया है -“स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः', परधर्म अर्थात् दूसरी वस्तु या दूसरे व्यक्ति के स्वभाव को इसलिए भयावह कहा गया, क्योंकि वह हमारे लिए स्वभाव न होकर विभाव होगा। जो विभाव है, वह धर्म न होकर अधर्म ही होगा। 105 प्रत्येक के लिए जो उसका निज-गुण है, स्व-स्वभाव है, वही धर्म है। स्व-स्वभाव से भिन्न जो भी होगा, वह उसके लिए धर्म नहीं अधर्म ही होगा।106 अधर्म ही एक ऐसी विकृति है, जिससे आत्मा क्लेश पाता है107. अर्थात् तनावयुक्त अवस्था में रहता है। एक धर्म ही ऐसा पवित्र अनुष्ठान है, जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है। विभाव रूपी कचरा नष्ट हो जाता है, आत्मा की विशुद्धि तनावमुक्त अवस्था में ही होती है, क्योंकि आत्मा स्व-स्वभाव में होने से विशुद्ध होती है। संसार में कोई भी मोहग्रस्त अवस्था निष्फल नहीं होती है, अर्थात् तनावरहित नहीं होती है। एकमात्र धर्म ही स्वस्वभाव रूप होने से बन्धन या तनाव का हेतु नहीं है।109 उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति का या वस्तु का स्वस्वभाव में होना धर्म है और विभाव में होना अधर्म है। अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य का धर्म क्या है ? इसका स्पष्ट उत्तर है कि जो मनुष्य का स्वभाव होगा वहीं मनुष्य का धर्म होगा। मनुष्य का स्वभाव मनुष्यता ही है, अतः मनुष्य 105 गीता -3/35 106 धर्म का मर्म - डॉ. सागरमल जैन, पृ. 14 107 एगे मरणे अंतिमसारीरियाणं - स्थानांग -1/1/36 108 एगा अहम्मपडिमा, जं से आया परिकिलेसति – स्थानांग, 1/1/38 10 किरिया हि णत्थि अफला, धम्मो जदिं णिप्फलो परयो। - प्रवचनसार -2/24 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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