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होता है कि आत्म-विशुद्धि का सम्बन्ध द्रव्य वर्गणाओं की निर्जरा के साथ रहा हुआ है। आत्मा की विशुद्धि का सीधा सम्बन्ध रंगों के साथ नहीं है, किन्तु आत्मा के मलिन परिणामों का सम्बन्ध कर्मवर्गणाओं के साथ होने के कारण और कर्मवर्गणाओं का सम्बन्ध रंगों के साथ होने के कारण आत्मविशुद्धि का संबंध भी रंगों से जोड़ा जा सकता है, क्योंकि कर्मवर्गणाएँ जितनी कम और जितनी विशुद्ध होंगी, उतनी ही भावों की विशुद्धि होती है। इसी कारण से यह माना गया है कि शुभ लेश्याओं में भी उज्ज्वल एवं प्रशस्त रंग पाए जाते हैं। लेश्याएँ जितनी-जितनी मात्रा में अशुद्ध होती है, उनके रंग भी कृष्ण, मलिन, अप्रकाशक
और अशुद्ध होते हैं। इस प्रकार रंगों का सम्बन्ध हमारी आध्यात्मिक शुद्धि और अशुद्धि से भी है। जब रंगों का सम्बन्ध हमारी आध्यात्मिक शुद्धि और अशुद्धि से हो तब मानसिक संतुलन और आत्मा की शुद्धि के लिए रंगों का ध्यान किया जा सकता है। जैनदर्शन में इसे लेश्या-ध्यान की साधना कहा जाता है। जैसी कर्मवर्गणाएँ आती हैं, वैसी ही हमारी भावधारा होती है। आत्मा का अपना कोई रंग नहीं होता। जिस रंग की कर्मवर्गणाएँ आती हैं, आत्मा के द्रव्य कर्मजन्य परिणाम भी वैसे ही रंग के हो जाते हैं और जैसे रंग कर्मजन्य परिणामों के होंगे वैसी ही हमारी लेश्या होगी। इसलिए लेश्या की शुद्धि के लिए लेश्या/रंग-ध्यान प्रक्रिया अपनानी होगी।
लेश्या ध्यान प्रक्रिया - लेश्या ध्यान का प्रयोग प्रेक्षा–ध्यान साधना पद्धति का एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। प्रेक्षा-ध्यान के प्रणेता आचार्य महाप्रज्ञजी ने लेश्या-ध्यान की निम्न सरल विधि बताई है -
ध्यान की विधि120 -
प्रथम चरण -
कायोत्सर्ग (relaxation) -पैर से सिर तक शरीर को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटकर प्रत्येक भाग पर चित्त को केन्द्रित कर, स्वत सूचन (auto-suggestion)
120 प्रेक्षा ध्यान : लेश्या-ध्यान, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 37-38
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