Book Title: Jain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Author(s): Trupti Jain
Publisher: Trupti Jain

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Page 347
________________ 328 का मानवीय गुण से युक्त होकर जीना ही धर्म है, जो विश्वशांति या तनावमुक्ति का हेतु है। ___ पहले हमें यह विचार करना है कि एक मनुष्य के रूप में हम क्या हैं ? इसका समाधान करते हुए डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि -“मानव अस्तित्व द्विआयामी (Two dimensional) है। शरीर और चेतना -- ये हमारे अस्तित्व के दो पक्ष हैं, किन्तु इसमें भी हमारे अस्तित्व का मूल आधार चेतना ही है।10 जिस प्रकार विद्युत के तार का स्वयं में कोई मूल्य या महत्त्व नहीं होता है, उसका मूल्य या उपादेयता उसमें विद्युत संचार से होती है, उसी प्रकार शरीर का मूल्य उसकी चेतना से है। चेतना के अभाव में शरीर मात्र एक शव होता है। अब प्रश्न उठता है कि चेतना का स्वरूप क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर हमें भगवान् महावीर और गौतम के बीच हुए संवाद में मिलता है। गौतम पूछते हैं - "भगवन्! आत्मा कया है और आत्मा का अर्थ या साध्य क्या है ?” महावीर उत्तर देते हैं -“गौतम! आत्मा का स्वरूप 'समत्व' है और 'समत्व' को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है और यह समत्व की साधना ही तनावमुक्ति की साधना है। यह बात न केवल दार्शनिक दृष्टि से सत्य है, अपितु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सत्य सिद्ध होती है। फ्रायड नामक सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक का कथन है –चैत्त जीवन का स्वभाव यह है कि वह विक्षोभ और तनाव को मिटाकर समत्व की स्थापना करता है। विक्षोभ तनाव और मानसिक द्वन्द्वों से ऊपर उठकर शान्त, निर्द्वन्द्व मनःस्थिति को प्राप्त करना यह हमारी स्वाभाविक अपेक्षा है और यही धर्म धर्म मूलतः समभाव की साधना है। यह समभाव की साधना ज्ञाता-द्रष्टाभाव या साक्षीभाव के बिना सम्भव नहीं होती और जब तक चित्त अथवा मन साक्षीभाव में रहता है, तब तक उसमें नवीन विकल्प नहीं आते हैं। 110 धर्म का मर्म - डॉ. सागरमल जैन, पृ. 15 " आयाए सामाइए आय सामाइस्स उट्ठ - भगवतीसूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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