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नासाम्बरत्वे, न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे, न च तत्त्ववादे,
न पक्षसेवाश्रएण मुक्ति, कषायमुक्ति किलः मुक्तिरेव!" 'न दिगम्बर होने से, न श्वेताम्बर होने से, न तर्कवाद और न तत्त्वचर्चा से, न पक्ष विशेष कर आश्रय लेने से मुक्ति प्राप्त है, वस्तुतः कषायमुक्ति ही मुक्ति " है, यह कषायमुक्ति ही तनावमुक्ति है।
विपश्यना/प्रेक्षाध्यान और तनावमुक्ति -
भारतीय श्रमण परम्परा में तनावमुक्ति के लिए दो प्रकार की ध्यान साधना पद्धतियाँ प्रचलित हैं। एक विपश्यना और दूसरी प्रेक्षा ध्यान साधना। वस्तुतः विपश्यना और प्रेक्षा ध्यान दोनों ही साक्षीभाव की ध्यान साधना का ही एक रूप हैं। दोनों में साधक को ज्ञाता-द्रष्टाभाव में रहने को कहा जाता है। दोनों ही अप्रमत्त दशा की साधना है। दोनों में ही मन और शरीर में जो कुछ हो रहा है, उसे सजगतापूर्वक देखते रहने की बात कही जाती है। वस्तुतः दोनों ही मन को विकल्पों से मुक्त करने की साधनाएँ हैं। जैनदर्शन और बौद्धदर्शन दोनों ही यह मानते हैं कि तनाव का मूल कारण मन का विकल्पों, इच्छाओं और आकांक्षाओं से युक्त होना है। इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और अपेक्षाएँ वस्तुतः तृष्णा और राग-द्वेष की वृत्ति से जन्म लेती हैं, अतः यदि चेतना और जीवन को तनावमुक्त बनाना है तो निर्विकल्पता की साधना आवश्यक है, क्योंकि तृष्णा और राग-द्वेष की प्रवृत्ति विकल्पों को जन्म देती है और विकल्पों से चित्त तनावयुक्त बनता है, जिसका प्रभाव हमारी शारीरिक स्थिति पर भी पड़ता है। अतः तनावमुक्ति के लिए विपश्यना/प्रेक्षा ध्यान की साधना आवश्यक है। प्रेक्षा-ध्यान और विपश्यना से तनावमुक्ति किस प्रकार होती है, यहाँ इसे समझ लेना भी आवश्यक है। विपश्यना या प्रेक्षाध्यान में चित्त को श्वासो- श्वास, दैहिक संवेदनाओं अथवा
ब) क्षान्तया क्रोधो, मृदुत्वेन मानो, मायाऽऽर्जवेन च।
लोभश्चानीहया, जयोः कषायाः इति संग्रहः ।। सम्बोध सप्ततिका - गाथा 2.
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