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परिस्थितियों में मन को विचलित नहीं करे। शत्रु व मित्र के प्रति समभाव रखे। सामायिक चारित्र को दूसरे शब्दों में सावध योग क्रिया विरति कहा गया है, अर्थात् पापक्रियाओं अथवा तनाव उत्पन्न करने वाली क्रियाओं का त्याग करना। जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों के तुलनात्मक अध्ययन में डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि –“वासनाओं, कषायों एवं राग-द्वेष की वृत्तियों से निवृत्ति तथा समभाव की प्राप्ति सामायिक चारित्र है। सामायिक चारित्र का ग्रहण तनाव प्रबधन में एक सहायक तत्त्व है। छेदोपस्थापनीय चारित्र -
सामायिक चारित्र में सामान्य रूप से सावध योग का त्याग किया जाता है। छेदोपस्थानीय चारित्र में पांच महाव्रतों का ग्रहण होता है। व्यक्ति तनावों से ग्रसित तब होता है जब उसके हृदय में अशान्ति हो। यह अशान्ति तब आती है, जब वह हिंसक, असत्यवादी, चौर्य कर्म करनेवाला, कामभोगाभिलाषी और वस्तु का संग्रह करने वाला हो। यही पांच मुख्य रूप से व्यक्ति के मन को चंचल बनाते हैं और राग-द्वेष भाव को उत्पन्न करते हैं और राग-द्वेष तनावयुक्त जीवन का मूल कारण हैं। श्रमण जीवन में राग-द्वेष के लिए कोई स्थान नहीं होता, इसलिए तनाव उत्पन्न करने वाला प्राणातिपातादि व्रतों का जीवन भर के लिए त्याग किया जाता है। इसी को छेदोपस्थानीय चारित्र कहते हैं। सामान्यतः इसे बड़ी दीक्षा भी कहा जाता है। परिहारविशुद्धि चारित्र -
परिहारविशुद्धि का अर्थ है- गण या शिष्य-परिवार का त्याग करके आत्म विशुद्धि की विशिष्ट साधना करना। जिस आचरण के द्वारा कर्मों का अथवा दोषों का परिहार होकर निर्जरा के द्वारा विशुद्धि हो वह परिहारविशुद्धि चारित्र है। कर्मों के बंध का हेतु है, कषाय और कषाय ही तनावपूर्ण जीवन का कारण है। परिहारविशुद्धि चारित्र में कषायों का परिहार कर आत्मविशुद्धि की जाती है। आत्म विशुद्धि की अवस्था ही तनावमुक्ति की अवस्था है।
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