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मानसिक शांति की आवश्यकता है। आचार्य महाप्रज्ञजी ने भी यही सूत्र दिया है। सुधरे व्यक्ति से समाज, राष्ट्र स्वयं सुधरेगा। उन्होंने विश्वशांति का मूल मंत्र बताते हुए लिखा है - "व्यक्ति-व्यक्ति में सामूहिक (समता) चेतना को जगाना ही विश्वशांति का मूलमंत्र है। 44 .
व्यक्ति की चेतना को जगाने से तात्पर्य है स्व हिंसा से बचना। हिंसा दो प्रकार की होती है, पहली “स्व' की हिंसा और दूसरी 'पर' की हिंसा। सामान्यतः लोग अहिंसा का तात्पर्य दूसरों की हिंसा नहीं करना, दूसरों को दुःख नहीं देना यही मानते हैं। किन्तु जैन दार्शनिकों का मानना है कि –'स्व' की हिंसा के बिना 'पर' की हिंसा नहीं होती है। व्यक्ति दूसरों की हिंसा तभी कर पाता है, जब वह अपने शुद्ध स्वरूप की हिंसा करता है। स्वभाव से विभाव में जाना अर्थात् राग-द्वेष कषायादि से युक्त होना स्व की हिंसा है। स्व की हिंसा के बिना पर की हिंसा सम्भव नही होती है। इसका तात्पर्य यही है कि दूसरों को दुःख देने की प्रवृत्ति राग-द्वेष के बिना नहीं होती और राग-द्वेष कषायों से युक्त होना स्व के शुद्ध स्वरूप की हिंसा है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में इससे सम्बन्धित कुछ निम्न सूत्र मिलते हैं – कुद्धा हणंति, लुद्धा हणंति, मुद्धा हणंति, अर्थात् कुछ लोग क्रोध से हिंसा करते हैं, कुछ लोभ से हिंसा करते हैं और कुछ लोग आसक्ति से हिंसा करते हैं।45 पाणवहो चंडो, रूद्दो, सुदो (क्षुद्र). अणारियो, निग्घिणो, निसंसो, महब्मयो ...
अर्थात् प्राणवध (हिंसा) चण्ड है, रौद्र है, क्षुद्र है, अनार्य है, करूणारहित है, क्रूर है और महाभंयकर है। 46 जहाँ तक तनावों को प्रश्न है, उनका जन्म राग-द्वेष कषायों से होता है, अतः तनाव भी एक प्रकार से स्वस्वरूप की हिंसा है, क्योंकि तनाव भी विभाव दशा है। विभाव दशा में व्यक्ति जो कुछ करेगा, वह सब हिंसा के अंतर्गत ही आता है। दूसरे शब्दों में कहें तो बाह्य हिंसा या दूसरों.
“ विश्वशांति और अहिंसा -आचार्य महाप्रज्ञ 45 प्रश्नव्याकरणसूत्र -1/1
46 वही - 1/1
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