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गुणधर्मो की प्रतीति होती है, अपितु उसमें अनेक विरोधी धर्मयुगल भी पाये जाते हैं" 54 आचार्य महाप्रज्ञजी ने अनेकान्त का एक सूत्र सह प्रतिपक्ष दिया है। 55 बृहदारण्यकोपनिषद में भी परस्पर विरोधी गुणधर्मों की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं। उसमें ऋषि कहता है कि 'वह स्थूल भी नहीं है और सूक्ष्म भी नहीं है। 56 तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा गया है कि वह परम सत्ता मूर्त-अमूर्त, वाच्य -- अवाच्य, विज्ञान (चेतन) - अविज्ञान (जड़), सत्-असत् रूप है।"
प्रत्येक वस्तु में विरोधी गुण होते हैं। आज के युग में देखा जाए तो विश्व के तनावयुक्त होने का एक कारण विरोधाभास ही है। एक ही पदार्थ में नाना प्रकार की विरोधी धारणाएँ होती हैं और यही विरोधी धारणाएँ द्वन्द्व की स्थिति को उत्पन्न करती है । सत्य के एक पक्ष को देखने से व्यक्ति उसके प्रतिपक्ष का विरोध कर तनाव उत्पन्न करता है। विवाद विरोध से ही उत्पन्न होता है और जहाँ विवाद है, वहाँ अशांति व तनावयुक्त माहौल होता है। कोई भी व्यक्ति एक पक्ष को स्वीकार करता है, तो उसके प्रतिपक्ष का केवल अस्वीकार ही नहीं करता, अपितु उसका विरोध कर विवाद करने को तैयार हो जाता है। ऐसी स्थिति में अनेकांतवाद परस्पर विरोधी अवधारणाओं के मध्य समन्वय स्थापित करता है । अनेकान्त विरोधी के अस्तित्व को स्वीकृत करने के साथ-साथ प्रतिपक्ष को भी स्वीकार करता है । अगर जीवन में सुख-शांति चाहिए तो यह जरूरी है, कि हमें पक्ष- प्रतिपक्ष दोनों को हमेशा स्वीकार करना होगा, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ में विरोधी गुण विद्यमान है। जैसे- हमारे शरीर में पिनियल और पिच्यूटरी ये दोनों ग्रन्थियाँ ज्ञान के विकास की ग्रन्थियाँ हैं तो गोनाड्स काम - विकास की ग्रन्थि है। दोनों विरोधी बातें हमारे शरीर की संरचना में समाई हुई हैं। व्यक्ति को दोनों तत्त्वों को स्वीकार करना होगा। विरोधी युगल नहीं
54 अनेकांतवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगी : सिद्धान्त और व्यवहार, डॉ. सागरमल जैन, पृ. viii
ss अनेकांत है तीसरा नेत्र आचार्य महाप्रज्ञजी, पृ. 12
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56
'बृहदारण्यकोपनिषद् - 3/8/8
57
" तैत्तिरीयोपनिषद् - 2 /6
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