Book Title: Jain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Author(s): Trupti Jain
Publisher: Trupti Jain

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Page 332
________________ ____313 हुई इन्द्रियों में से एक भी इन्द्रिय इस पुरुष की बुद्धि को हरण कर लेने में समर्थ है। इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों की ओर आकर्षित होती हैं और ये इन्द्रियों के विषय जीवात्मा में विकार उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार व्यक्ति का विवेक और मानसिक शांति दोनों भंग हो जाते हैं और व्यक्ति तनावग्रस्त हो जता है। इसलिए कहा गया है कि -साधक शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श इन पाँचों एन्द्रिक-विषयों के सेवन को सदा के लिए छोड़ दे।5। - तनावमुक्ति के लिए इन्द्रिय-विजय आवश्यक है, किन्तु क्या इन्द्रिय-विजय के लिए पूर्ण इन्द्रिय-निरोध सम्भव है ? इस प्रश्न का उत्तर. देते हुए डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि -जब तक जीव देह धारण किए हुए है, उसके द्वार। इन्द्रिय-व्यापार का पूर्ण निरोध सम्भव नहीं। कारण यह है कि वह जिस परिवेश में रहता है, उसमें इन्द्रियों को अपने विषयों से सम्पर्क रखना ही पड़ता है। संसार में यह भी सम्भव नहीं है कि व्यक्ति अपने इन्द्रियों का उपयोग नहीं करे और जब तक इन्द्रियाँ हैं, व्यक्ति का बाह्य जगत से सम्पर्क भी होगा ही। ऐसी स्थिति में व्यक्ति कभी तनाव से मुक्त नहीं हो सकेगा। इस सम्बन्ध में तनावमुक्ति के लिए या इन्द्रिय विजय के लिए आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध में पन्द्रहवें भावना नामक अध्ययन तथा उत्तराध्ययन में गम्भीरता से विचार किया गया है। उसमें कहा गया है कि -यह शक्य नहीं है कि कानों में पड़ने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने न जाऐं, अतः शब्दों का नहीं, शब्द के प्रति जाग्रत होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है कि आँखों के सामने आने वाला अच्छा या बुरा रूप देखा न जाए, अतः रूप का नहीं, रूप के प्रति जाग्रत होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है 74 गीता - 2/67 75 उत्तराध्ययन - 16/10 १० जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ.सागरमल जैन, भाग-1, पृ. 474 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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