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होगा तो जीवन भी समाप्त हो जाएगा, क्योंकि जीवन है तो मृत्यु भी है। ऊँचा है तो नीचा भी है, बन्धन है तो मुक्ति के अस्तित्व को भी स्वीकार करना पड़ेगा। अनेकांत के तीसरे स्वरूप में वस्तुतत्त्व की अनेकांतिकता को स्वीकार करने का कथन मिलता है। एक ही वस्तु में रहे हुए अनन्त गुणों में से समय-समय पर कुछ गुणधर्म प्रकट होते हैं और कुछ गौण रहते हैं, जैसे कच्चे आम में खट्टापन व्यक्त रहता है और मीठापन गौण होता है। कालान्तर में मीठापन प्रमुख हो जाता है और खट्टापन गौण हो जाता है। इसी प्रकार एक बालक में उत्तम बुद्धि लब्धि होने पर भी समझ अविकसित रहती है, कालान्तर में वह विकसित हो जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति में विकास की अनन्त सम्भावनाएँ हैं, उन्हीं अविकसित सम्भावनाओं को विकसित करना, यही प्रबंधन की उपयोगिता है। साथ ही अनेकांतवाद यह भी मानता है कि वस्तु में परस्पर विरोधी धर्म-युगल एक साथ पाए जाते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि व्यक्ति में तनावग्रस्त होने और तनावमुक्त होने की सम्भावनाएँ हैं। अतः तनावप्रबन्धन की दृष्टि से जैनदर्शन का मानना है कि व्यक्ति को तनावग्रस्त होने की अपेक्षा तनावमुक्ति की दिशा में प्रयत्न करना चाहिए।
तत्त्वार्थसूत्र में 'उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं सत्' कहकर वस्तु के अनेकान्तिक स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। एक वस्तु उत्पन्न होती है, वही नष्ट भी होती है और वही ध्रौव्य भी होती है। वस्तु की पर्याय बदलती है पर द्रव्य वही होता है। उदाहरण – सोने की अंगूठी का गलाकर उसकी चूड़ी बनाई जा सकती है, उसका आकार बदला जा सकता है, पर सोने के परमाणु तो वही होते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि हम वस्तुतत्त्व या सत् के प्रत्येक पक्ष को, उसकी अनेकान्तिकता को या अनन्तधर्मात्मकता को स्वीकार करें।
प्रत्येक व्यक्ति, समाज, देश तथा विश्व में शांति स्थापित करने में अनेकान्त शांतिदूत के समान है। हमें तनावमुक्ति के लिए अनेकान्त के महत्त्व
5 तत्त्वार्थसूत्र - 5/29, उमास्वाति
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