Book Title: Jain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Author(s): Trupti Jain
Publisher: Trupti Jain

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Page 308
________________ 289 सूक्ष्मसम्पराय चारित्र - जिस अवस्था में कषायवृत्तियाँ क्षीण होकर किंचित रूप में ही अवशिष्ट रही हों, वह सूक्ष्म सम्पराय चारित्र है। कषाय प्रवृत्तियों जितनी तीव्र होती हैं, व्यक्ति उतना ही अधिक अशांत होता है। कषाय की तीव्रता जितनी होगी उतना तनाव बढ़ेगा और जहाँ कषाय का सूक्ष्म अंश ही शेष हो वहाँ तनाव का भी सूक्ष्म अंश ही रहेगा, जिसे समाप्त होने में समय नहीं लगता। यह चारित्र दसवें गुणस्थान में मात्र सूक्ष्मलोभ अर्थात् मात्र देह भाव की अवस्था में होता है। तनाव की इस अंशमात्र स्थिति में क्रोध, मान और माया पूर्णतः समाप्त हो जाते हैं। जिस अवस्था में इन तीनों कषायों का उपशम व क्षय हो जाता है, केवल सूक्ष्म लोभ का अंश विद्यमान रहता है, उस अवस्था को सूक्ष्मसम्पराय चारित्र या सूक्ष्म तनावयुक्त अवस्था कह सकते हैं। यथाख्यात चारित्र - यथाख्यात चारित्र की अवस्था को पूर्णतः तनावमुक्त अवस्था कहा जा सकता है। इस अवस्था में मोह तद्जन्य कषाय और नोकषाय समग्रतः उपशांत व क्षीण हो जाते हैं। यथाख्यात चारित्र में आत्मा शुद्ध व निर्मल होती है और आत्मविशुद्धि की सदशा ही तनावमुक्त दशा है। डॉ. सागरमल जैन ने वासनाओं के क्षय, उपशम और क्षयोपशम के आधार पर चारित्र के भी तीन भेद किए हैं -1. क्षायिक, 2. औपशमिक और 3. क्षयोपशमिक 1. क्षायिक - क्षायिक चारित्र हमारे आत्म स्वभाव से प्रतिफलित होता है। तनाव की शून्यता से आत्मा में जो विशुद्धता और निर्मलता होती है, वह क्षायिक चारित्र है। तनाव उत्पन्न होने का मूल कारण है राग-द्वेष एवं मोह। मोहनीय कर्म के सम्पूर्णतः क्षय होने पर ही क्षायिक चारित्र की . उपलब्धि होती है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि समग्रतः तनावमुक्त अवस्था होने पर जिसकी उपलब्धि होती है, वह क्षायिक चारित्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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