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सामग्री का संचय नहीं करने की वृत्ति को प्रधानता दी गई है। वर्तमान युग में धन के प्रति लोगों का आकर्षण बहुत बढ़ गया है। यह आकर्षण इतना बढ़ चुका है कि मनुष्य अर्थ का अर्जन करने के लिए अपने व दूसरों के जीवन का मूल्य भी नहीं समझते। आज के युग में एक कहावत प्रचलित हो गई है कि –“पैसा भगवान् नहीं पर भगवान् से कम भी नहीं है।" अर्थ के प्रति इतनी आसक्ति बढ़ गई है कि भगवान् की आराधना भी धन संचय की कामना से होने लगी है। मुख्य रूप से हिंसा, झूठ, चोरी, कलह, युद्ध आदि कई अनैतिक कर्म भी अर्थ संचय के लिए ही किए जाने लगे हैं। उत्तराध्ययन में भगवान महावीर ने कहा है, जो मनुष्य कुबुद्धि का सहारा लेकर पापकर्मों से धन का उपार्जन करते हैं, वे पापोपार्जित उस धन को यहीं छोड़कर राग-द्वेष के पाश (जाल) में पड़े हुए. तथा वैर (कर्म) से बंधे हुए मरकर नरक में जाते हैं। आज व्यक्ति, समाज और विश्व में अशांति या तनाव का प्रमुख कारण अर्थ संचय की वृत्ति बन गई है।
गणाधिपति तुलसी ने लिखा है –'अर्थ का अर्जन, संग्रह, संरक्षण और भोग -यह चतुष्टयी संताप का कारण बन रही है। व्यक्ति सर्वप्रथम धन अर्जन कैसे करे ? इसके लिए चिंतित रहता है, फिर लोभवश अधिकाधिक संचय करना चाहता है। लोभ की प्रवृत्ति व्यक्ति को कभी शांति का अनुभव नहीं होने देती। उसके मन-मस्तिष्क में लोभ की अग्नि जलती रहती है, जो उसके अन्दर की शांति को भस्म कर देती है, उसे तनावग्रस्त बना देती है। मनुष्य धन का संचय स्वयं के त्राण के लिए करता है, किन्तु धन के संचय एवं संरक्षण में ही स्वयं के प्राण त्याग देता है।
उत्तराध्ययनसूत्र में वित्तेण ताणं ण लमे प्रमत्ते" अर्थात् आसक्त (प्रमत्त) व्यक्ति धन से भी त्राण को प्राप्त नहीं होता है। जैनग्रंथों में अपरिग्रह के बारे में बहुत सी ऐसी अनेक बातें मिलती हैं। धन में मूछित मनुष्य न इस लोक में और
जे पावकम्हेहिं धण. ..... उत्तराध्ययनसूत्र 4/2 * महावीर का अर्थशास्त्र - आशीर्वचन (पुस्तक का प्रथम पृष्ठ) उत्तराध्ययन सूत्र 6/5
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