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समान समझना। जहाँ राग होता है, वहाँ द्वेष भी होता है और जहाँ राग, द्वेष होते हैं, वहीं तनाव उत्पन्न होता है। राग, द्वेष ही व्यक्ति के समभाव को क्षीण करते हैं। ऐसा व्यक्ति ही प्राणियों की हिंसा करता है। हिंसा से तनाव उत्पन्न होता है। दूसरे यही समभाव 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के सिद्धान्त की स्थापना करता है, जो अहिंसा का आधार है। अहिंसा ही सम्पूर्ण विश्व में सुख-शांति फैलाती है। हिंसा व्यक्ति के मन में भय पैदा कर देती है। व्यक्ति यही चिन्तन करता रहता है कि मुझे या मेरे परिवार को कोई नुकसान न पहुंचा सके। भय उसका मानसिक संतुलन बिगाड़कर उसे तनावग्रस्त बना देता है, उसके जीवन की शांति भंग कर देता है, फिर धीरे-धीरे अपने बचाव के लिए वह हिंसात्मक प्रवृत्तियाँ भी करने लगता है। कहा जाता है कि एक गंदी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है, उसी प्रकार हिंसात्मक व्यक्ति पूरे समाज को, देश को और पूरे विश्व को हिंसात्मक बना देता है। इस प्रकार व्यक्ति ही क्या पूरा विश्व ही इन हिंसात्मक प्रवृत्तियों से तनावग्रस्त हो जाता है। इस तनावपूर्ण स्थिति से तनावमुक्त अवस्था में जाने के लिए व्यक्ति को ‘समभाव' में रहना होगा। सभी को एक समान समझना होगा। बृहद्कल्पभाष्य में कहा गया है कि –“जो तुम अपने लिए चाहते हो वही दूसरों के लिए भी चाहो तथा जो तुम अपने लिए नहीं चाहते हो, वह दूसरों के लिए भी न चाहो। इस उपदेश से यह सिद्ध होता है कि जो कोई भी व्यक्ति तनावपूर्ण स्थिति में नहीं रहना चाहता है, तो वह दूसरों के लिए भी भय का या अविश्वास का निमित्त न बने। जब व्यक्तियों में इस प्रकार से समभाव का विकास होगा, तो एक-दूसरे के प्रति विश्वास बढ़ेगा और भय समाप्त हो जाएगा। भय की शून्यता भी तनावमुक्ति की स्थिति होती है।
दूसरे अर्थ में सम् को चित्तवृत्ति का समत्व भी कहा जा सकता है, अर्थात् सुख-दुःख, हानि-लाभ एवं अनुकूल-प्रतिकूल दोनों स्थितियों में समभाव रखना, चित्त विचलित नहीं होने देना। चित्त की चंचलता मानसिक संतुलन को
'बृहद्कल्पभाष्य - 4584
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