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उसको यह भी ज्ञात हो जाता है कि उसका यह जो शरीर है, वह भी पुद्गल रूपी 'पर' पदार्थ है। जहाँ 'पर' से ममत्व हटा, स्व तथा पर का भेद-ज्ञान हुआ, वहाँ सभी तनाव शांत हो जाते हैं। मात्र शांति का अनुभव होता है। ऐसा अनुभव ही तनावमुक्ति की अवस्था है।
सम्यग्चारित्र और तनाव -
सम्यक तनाव प्रबंधन के लिए सम्यग्दर्शन एवं विवेकज्ञान के साथ-साथ सम्यक आचरण होना अतिआवश्यक है। दर्शन मात्र एक अनुभूति है, उस अनुभूति की समीक्षा करना ज्ञान है, किन्तु सम्यग्ज्ञान होने पर भी उसका अनुसरण या पालन करना आवश्यक है। सम्यग्ज्ञान के द्वारा प्राप्त योग्य विधि का प्रयोग करना ही सम्यग्चारित्र है। डॉ. सागरमल जैन ने अपनी शोध कृति में लिखा है -“दर्शन एक परिकल्पना (हाइपोथेसिस) है, ज्ञान प्रयोग-विधि है और चारित्र प्रयोग है। 25 वस्तुतः सम्यक्चारित्र तनावमुक्ति की दिशा में उठाया गया चरण है। सिर्फ सम्यग्दर्शन या सम्यग्ज्ञान अकेला कुछ नहीं कर सकता। उसके लिए सम्यग्चारित्र होना अतिआवश्यक है। तीनों के संयोग से ही व्यक्ति तनावों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। ज्ञान का सार आचरण है और आचरण का सार निर्वाण या मोक्ष अर्थात् पूर्णतः तनावमुक्ति की अवस्था की उपलब्धि है। ज्ञान के द्वारा हम तनावों के कारणों, जैसे - इच्छाएँ, अपेक्षाएँ, वासनाएँ, कषाय और राग-द्वेष की वृत्तियों, जो आत्मा को तनावयुक्त बनाती है, के स्वरूप को जानते हैं, साथ ही इन तनावों के कारणों के निराकरण के उपायों को भी जानते हैं। हम यह जानते हैं कि त्यागने योग्य क्या है और ग्रहण करने योग्य क्या है। तनावों के कारणों एवं उनके निराकरण के उपायों को जानकर उन पर विश्वास रखकर एवं तनावमुक्ति के लिए प्रयत्न करना सम्यकचारित्र है। दूसरे शब्दों में
" जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, - पृ. 84 26 आचारांग नियुक्ति - 244
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