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अस्त-व्यस्त कर उसे तनावग्रस्त बना देती है। मानसिक संतुलन भंग होने से व्यक्ति तनाव की स्थिति में आ जात है। दूसरे के निमित्त से जब कोई सुख मिलता है, तो व्यक्ति प्रसन्न-चित्त हो जाता है, किन्तु काल हमेशा एक-सा नही रहता है, कालान्तर में वही जब निमित्त से दुःख पाता है तो उसका चित्त शोकग्रस्त हो जाता है और व्यक्ति विलाप करने लगता है। विलाप तनाव की स्थिति को प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार लाभ-हानि में भी व्यक्ति सम नहीं रह पाता है। अनुकूल स्थिति में भी वह शांत, तो प्रतिकूल स्थिति में व्याकुल हो जाता है। अतः तनाव-मुक्ति के लिए समत्व की साधना आवश्यक है। व्यक्ति का मन इतना चंचल होता है कि एक सुख आया नहीं कि उसमें दूसरे सुख की कामना जाग्रत हो जाती है और उस कामना की पूर्ति हेतु वह व्यक्ति फिर तनावग्रस्त हो जाता है। इस प्रकार मानव किसी भी स्थिति में समत्व में नहीं रह पाता है। वह मन की चंचलता के कारण तनावग्रस्त ही रहता है। अतः तनाव-मुक्त जीवन जीने के लिए समभाव में रहने की साधना करनी होगी। चित्तवृत्तियों को संतुलित करना होगा। सुख में न प्रसन्न होना होगा और न दुःख में विचलित होना होगा। हर परिस्थिति का सामना समभाव से करना ही 'समत्व' है। 'समत्व' की साधना ही तनावमुक्ति का साधन है।
प्राकृत भाषा के 'सम' शब्द के संस्कृत भाषा में तीन रूप होते हैं - 1.सम्, 2. शम, 3. श्रम। संस्कृत 'शम' के रूप में इसका अर्थ होता है - शांत करना अर्थात् कषायाग्नि या वासनाओं को शांत करना। कुछ व्यक्तियों में कषायादि या वासनाओं की इतनी तीव्रता रहती है कि उनको उन्हें शांत करने के लिए वह, दुष्कर्म करने से भी पीछे नहीं हटता। वासनाएँ स्वादिष्ट भोजन के समान हैं। एक बार भोज्य पदार्थों के सेवन करने से अल्प समय के लिए भोजन करने की वासना समाप्त होगी, किन्तु फिर उसी स्वादिष्ट पदार्थ को खाने के लिए मन आतुर हो जावेगा। कामभोग की वासना भी एक बार भोग करने से शांत नहीं होती है, अपितु पुनः-पुनः भोगने की इच्छा जाग्रत करती है और जहाँ शांति नहीं वहाँ तनाव. होता ही है। इसलिए हमें वासनाओं को शांत करने के लिए उनका
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