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नहीं आती है। स्थिरता के अभाव में सिद्धि भी नहीं होती। स्थिरता के लिए स्थानांग में चार प्रकार की अनुप्रेक्षाएँ बताई गई हैं।100 1. एकात्वानुप्रेक्षा - जीव संसार में सदा अकेले ही परिभ्रमण करता है
और अकेला ही सुख-दुःख का भोग करता है, ऐसा चिन्तन करता है। 2. अनित्यानुप्रेक्षा – सांसारिक वस्तुओं की अनित्यता का चिन्तन करना। 3. अशरणानुप्रेक्षा – जीव के लिए कोई दूसरा व्यक्ति, धन, परिवार आदि
शरणभूत नहीं होते हैं, ऐसा चिन्तन करना। 4. संसारानुप्रेक्षा – चतुर्गति रूप संसार की दशा का चिन्तन करना।
तनावयुक्त व्यक्ति धर्मध्यान के आलम्बनों का सहारा लेकर तनाव से मुक्त होने का प्रयत्न करता है, किन्तु असफलता के कारण कभी-कभी ऐसी परिस्थिति का भी सामना करना पड़ता है, जहाँ धर्मध्यान से उसकी श्रद्धा डगमगाने लगती है और वह अधिक तनावग्रस्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में भी तनावमुक्ति के साधनों जैसे शास्त्र, गुरूवचन आदि पर श्रद्धा रखने के लिए अनुप्रेक्षा को भी नित्य नियम से करना आवश्यक है।
शुक्लध्यान -
धर्मध्यान के बाद शुक्लध्यान का क्रम है। डॉ. सागरमल जी जैन लिखते हैं कि –“शुक्लध्यान के द्वारा मन को शान्त और निष्कम्प किया जाता है। 161 तनाव की जन्मस्थली मन है और मन का अमन होना ही तनावमुक्ति है। शुक्लध्यान में मन अमन हो जाता है, अर्थात् मन में इच्छाएँ-आकांक्षाएँ या अन्य कोई विकल्प नहीं रह जाते हैं, जो व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाते हैं। चित्त शांत हो जाता है। यही कारण है कि जैनदर्शन में मुक्ति का अन्तिम साधन शुक्लध्यान
160 स्थानांगसूत्र - 4/1/68 16। जैन साधना पद्धति में ध्यान - डॉ. सागरमल जैन, पृ. 30
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