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जैनदर्शन में मन की अवस्थाएँ और तनाव --
भारतीय चिन्तन का एक सामान्य सिद्धान्त रहा है कि प्राणी कर्मों से बंधन को प्राप्त होता है और ज्ञान से मुक्ति को प्राप्त होता है, किन्तु ज्ञान और कर्म दोनों की जन्मभूमि मानव मन है और इसलिए यह कहा गया है कि –'मन ही मनुष्यों के बन्धन और मुक्ति का हेतु है। जैन कर्म सिद्धान्त यह मानता है कि मन से युक्त व्यक्ति ही घनीभूत कर्मों का बंध कर सकता है और मन से युक्त व्यक्ति ही मुक्ति को प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार मन ही मनुष्य के बंधन और मुक्ति का मूलभूत हेतु है। मन के विषय ही दुःख (तनाव) के हेतु होते हैं।" दूसरे शब्दों में कहें तो तनाव उत्पन्न भी मन से ही होता है और तनावों से मुक्ति भी मन से ही सम्भव है। उत्तराध्ययनसूत्र के तेईसवें अध्ययन में केशीस्वामी गौतम--स्वामी से पूछते हैं कि आप एक दुष्ट अश्व पर सवार हैं, वह आपको कुमार्ग पर क्यों नहीं ले जाता ? उत्तर में गौतम स्वामी कहते हैं18 -
. मणो साहस्सिओ मीमो, दुट्ठस्सो परिधावई।
तं सम्मं तु निगिण्हामि, धम्मसिक्खाई कन्थगं ।। अर्थात् मैंने उस दुष्ट अश्व को सूत्र रूपी रस्सी से नियमन करना सीख लिया है, अतः वह मुझे कुमार्ग पर नहीं ले जाता। मैं धर्मशिक्षा रूपी लगाम से उस घोड़े को अच्छी तरह से वश में किए रहता हूँ। गीता में अर्जुन श्रीकृष्ण से कहता है कि -यह मन अत्यंत चंचल, विक्षोभ उत्पन्न करनेवाला और बड़ा बलवान है, इसका निरोध करना तो वायु को रोकने के समान अत्यन्त दुष्कर है। कृष्ण कहते हैं – निस्संदेह मन का निग्रह कठिनता से होता है, फिर भी
16 अ) मैत्राण्युपनिषद, 4/11 ___ब) ब्रह्मबिन्दूपनिषद्, 2 " उत्तराध्ययनसूत्र, 32/100
उत्तराध्ययनसूत्र, 23/55 गीता, 6/34
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