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वस्तुतः लोभ कषाय एक प्रकार से किसी की प्राप्ति की इच्छा है और जहां प्राप्ति की इच्छा है या चाह है, वहां चिंता है और जहां चिंता है, वहां तनाव रहता ही है । इस प्रकार लोभ वृत्ति भी व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाती है। लोभ वृत्ति के कारण व्यक्ति अपने में अपूर्णता का बोध करता है और जहां अपूर्णता का बोध है, वहां तनाव अवश्य होता है। जब तक व्यक्ति लोभ अथवा इच्छाओं का निरोध नहीं करता है, तब तक वह तनाव में रहता है, क्योंकि वह अपने में एक कमी का अनुभव करता है और बाह्य जगत से उसकी पूर्ति की अपेक्षा रखता है। यह दोनों ही स्थितियाँ तनाव को जन्म देती हैं। कमी की अनुभूति में पूर्ति की चाह उत्पन्न होती है, जो तनाव का कारण बनती है। क्योंकि सामान्य रूप से भी यह माना जाता है कि जहां इच्छा या लालसा होती है वहां जब तक उसकी पूर्ति न हो जाए, चिंता रहती है और चिंता का अर्थ ही है मन का अस्थिर होना अथवा विचलित या परेशान होना और मन की यह स्थिति तनाव ही है। अतः लोभ कषाय भी तनाव का ही कारण है। लोभ भी चार प्रकार का कहा गया है"
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अनंतानुबंधी लोभ, अप्रत्याख्यानी लोभ, प्रत्याख्यानी लोभ, संज्वलन लोभ अनन्तानुबन्धी लोभ इस लोभ को किरमिची के रंग की उपमा दी गई। वस्त्र फट जाता है, पर किसी भी उपाय या प्रयत्न से किरमिची या पक्का रंग नहीं छूटता, उसी प्रकार अत्यधिक लोभी या तीव्रतम लोभ की इच्छा रखने वाला व्यक्ति किसी भी उपाय से अपनी लोभ की मनोवृत्ति को नहीं छोड़ता । ऐसी तीव्रतम लोभ की मनोवृत्ति लोभी व्यक्ति को इतना अधिक तनावग्रस्त कर देती है कि वह चाहकर भी तनाव से मुक्त नहीं हो पाता, क्योंकि लोभ उसे सदैव तनावग्रस्त बनाए रखता है।
" स्थानांगसूत्र - 4 / 87
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अप्रत्याख्यानी लोभ गाड़ी के पहिए के औगन के समान मुश्किल से छूटने वाला लोभ अप्रत्याख्यानी लोभ है। ऐसा लोभी व्यक्ति कोई चोट पड़ने के बाद
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