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इन दोनों को ही ध्यान की कोटि में रखा गया है। दिगम्बर-परम्परा की धवला टीका133 में तथा श्वेताम्बर-परम्परा के हेमचन्द्र के योगशास्त्र134 में ध्यान के दो ही प्रकार बताए गए हैं - धर्म और शुक्ल। धर्मध्यान के भी चार उपप्रकार कहे गए हैं।35, वे निम्न हैं - 1. आज्ञाविचय – मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कहें, तो जो पूर्णतः तनावमुक्त हैं,
उनके द्वारा बताए गए तनावमुक्ति के मार्ग का चिन्तन करना। जैन शब्दावली में कहें, तो जो वीतरागी है, तनाव के मूल हेतु राग-द्वेष से जो पूर्णतः मुक्त है, उसके उपदेशों पर चिन्तन करना आज्ञाविचय धर्मध्यान
है।
2. अपायविचय - राग-द्वेष से जनित दुःख का एवं उनके कारणों का
चिन्तन कर उनसे छुटकारा कैसे हो, इस सम्बन्ध में विचार करना
अपायविचय है। . 3. विपाकविचय – विपाक का अर्थ है, फल या परिणाम। जैनधर्म के
अनुसार पूर्वकर्मों के विपाक के परिणामस्वरूप उदय में आने वाली सुखदुःखात्मक विभिन्न अनुभूतियों का समभावपूर्वक वेदन करते हुए उनके कारणों का विश्लेषण करना विपाकविचय है। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि तनाव व तनावमुक्ति दोनों में होने वाली मानसिक
अशांति व शांति की अनुभूति करते हुए उनके परिणामों का चिन्तन करे। 4. संस्थानविचय – लोक एवं संस्थान शब्द का अर्थ आगमों में शरीर भी है
व संसार भी है।136 मन का शरीर व संसार से आसक्त होकर चिन्तित होना ही तनाव है। संस्थानविचय धर्म-ध्यान में व्यक्ति शरीर व संसार की
133 धवला पुस्तक -13, पृ. 70 134 योगशास्त्र - 4/115 135 (1) स्थानांगसूत्र -4/64 (2) ध्यानशतक - 45 136 जैन साधना पद्धति में ध्यान – डॉ. सागरमल जैन, पृ.29
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