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1. पृथक्त्व-वितर्क-सविचार - इस ध्यान में ध्याता द्रव्य की पर्यायों का चिन्तन करता है। व्यक्ति के राग-द्वेष के भाव द्रव्य पर ही होते हैं। द्रव्य की पर्यायों का चिन्तन करते-करते वह उस द्रव्य के प्रति राग-द्वेष से
रहित होकर तनावमुक्त हो जाता है। 2. एकत्व-वितर्क-अविचार - यह पृथक्त्व-वितर्क-सविचार का विरोधी
है। इसमें विचार का अभाव होता है। 3. सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती - इस अवस्था में मन, वचन और शरीर के
व्यापार का निरोध हो जाता है। व्यक्ति शांति का आनन्द का अनुभव
करता है। 4. समुच्छिन्न-क्रिया-निवृत्ति – यह पूर्णतः तनावमुक्ति की अवस्था है।
पूर्णतः तनावमुक्त व्यक्ति में निम्न लक्षण पाए. जाते हैं, जो शुक्लध्यानी के होते हैं140 -
1. किसी भी पीड़ा की स्थिति में अल्पमात्रा में भी दुःखी या तनावग्रस्त नहीं
होता, इसे ही स्थानांगसूत्र में अव्यथ-परीषह कहा गया है। 2. तनाव उत्पन्न करने वाली इच्छाओं, आकांक्षाओं का अंत हो जाता है,
अर्थात् वह किसी भी प्रकार से मोहित नहीं होता। 3. विवेक - स्व और पर के भेद को समझकर शुद्धात्म स्वस्वभाव में रमण
करता है।
4. व्युत्सर्ग - तनाव उत्पत्ति का मुख्य कारण ममत्व है। इस अवस्था में
शुक्लध्यानी अपने शरीर, उपधि आदि के प्रति ममत्व भाव का पूर्ण त्याग कर देता है।
140 (1) स्थानांगसूत्र - 4/70
(2) जैन साधना पद्धति में ध्यान – डॉ. सागरमल जैन, पृ.
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