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और है।145 शब्द, रूप आदि कामभोग के पदार्थ अन्य हैं, मैं (आत्मा) अन्य हूँ।146 कोई किसी दूसरे के दुःख को बँटा नहीं सकता,147 अर्थात् जो ये सगे-सम्बन्धी हैं, वे ही तनाव उत्पत्ति के निमित्त हैं। हर प्राणी अकेला जन्म लेता है, अकेला मरता है।148 कहने का तात्पर्य यही है कि व्यक्ति अकेला है, उसका शरीर भी उसका नहीं होता। वह भी राख हो जाता है, किन्तु हम शरीर से ममता रखते हुए दिन-रात उसकी कामनाओं की पूर्ति करने में लगे रहते हैं। यह मेरा है, वह मेरा है -इस ममत्व बुद्धि के कारण ही व्यक्ति दुःख पाता है। इस बात की पुष्टि सूत्रकृतांग से होती है। उसमें वर्णित है -“ममाइं लुप्पई बाले 149 जब तक ममत्व का त्याग नहीं होगा, तनाव-मुक्ति मिलना सम्भव नहीं है। मरूदेवी माता ने भी जब पुत्र से मेरेपन के भाव का त्याग किया, उसी वक्त केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्ति को प्राप्त हो गई। जितना-जितना त्याग बढ़ता जाएगा व्यक्ति की ममत्वबुद्धि या आसक्ति घटती जाएगी और जैसे-जैसे ममत्वबुद्धि या आसक्ति घटेगी, तनावमुक्ति की अनुभूति होगी। इस ममत्त्ववृत्ति या मेरेपन के विकल्प की समाप्ति ध्यान से होगी, अतः ध्यान तनावप्रबन्धन की एक विधि भी है। यहाँ उसकी चर्चा तनाव प्रबंधन की एक विधि के रूप में की जा रही है।
स्थानांगसूत्र और ध्यानशतक में तनाव प्रबंधन की विधि- ध्यानसाधना
स्थानांगसूत्र और ध्यानशतक दोनों ही संभवतः जैन-परम्परा के ध्यान सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं।
जहाँ स्थानांगसूत्र में ध्यान के प्रकार, लक्षण आदि की चर्चा है, वहाँ ध्यान शतक पूर्णतया ध्यान का ही ग्रन्थ है। इसमें भी ध्यान के लक्षण, प्रकार, आदि
145 सूत्रकृतांग – 2/1/9 146 सूत्रकृतांग - 2/1/13 147 सूत्रकृतांग - 2/1/13 148 सूत्रकृतांग - 2/1/13 14 सूत्रकृतांग - 2/1/1/4
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