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ममत्वबुद्धि व्यक्ति को बांधकर रखती है। ममत्वबुद्धि के अनेक उदाहरण जैन कथाओं में मिलते हैं। नन्दन मणियार को अपनी बनाई पानी की बावड़ी से इतनी अधिक ममता जुड़ी थी, कि उन्होंने मरकर उसी बावड़ी में मेंढक रूप में जन्म लिया। वस्तुतः देखा जाए तो यह ममत्वबुद्धि हमें पराधीन बना देती है। जो मेरा है, उस पर स्वामित्व भाव हो जाता है और व्यक्ति उस मेरेपन के भाव से ही तनावग्रस्त हो जाता है। व्यक्ति प्रसन्न तब होता है जब उसको वस्तुओं पर मेरेपन का अधिकार मिलता है। कन्हैयालालजी लोढ़ा लिखते हैं कि -"दुःख का कारण वस्तुओं व व्यक्तियों के प्रति रहा हुआ हमारा ममत्व व स्वामित्व भाव ही है और उस पराधीनता के दुःख से छूटने का उपाय है, वस्तुओं से स्वामित्वभाव या मेरेपन का त्याग। 144 हमने शरीर को भी 'मेरा' मान लिया है
और इस शरीर के अधीन होकर इसकी उन जरूरतों की पूर्ति करने में लगे हुए हैं, जो कभी समाप्त नहीं होती।
यह ममत्वबुद्धि एक साथ कई दुःखित भावों को जन्म देती है, जो तनाव का कारण बनते हैं। जैसे - जब धन का संचय होता है तो मेरे पास और अधिक धन हो, यह भाव परिग्रह बढ़ाता है। मैं सबसे बड़ा करोड़पति आदमी हूँ, यह भाव अहंकार पैदा करता है। इस प्रकार यह मेरेपन का भाव बंधन है, ममत्व है, अहं है और तनाव उत्पत्ति का कारण है, यह ममत्व ही तृष्णा को जन्म देता है। यह तृष्णा, इच्छा, कामना व्यक्ति को दुःखी व तनावग्रस्त करती है, क्योंकि तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती। प्यास लगने पर पानी पी लेते हैं, किन्तु कुछ समय बाद प्यास पुनः लग ही जाती है। इसी प्रकार व्यक्ति का यह स्वभाव हे कि उसकी तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती। तनावमुक्ति के लिए हमें इस मेरेपन का या ममत्व का त्याग करना होगा। यह समझना होगा कि सिर्फ आत्मा ही 'स्व' है, बाकी सब पराया है। सूत्रकृतांग में लिखा है - आत्मा और है, शरीर
144 दुःखरहित सुख – कन्हैयालाल लोढ़ा, पृ. 61
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