________________
209
साधक देह से आसक्ति नहीं रखता है, उक्त सब स्थितियों में सम्भाव रखता है। वस्तुतः उसी का कायोत्सर्ग शुद्ध होता है"64 कायोत्सर्ग में साधक अपने शरीर के प्रति रहे हुए ममत्व का त्याग करता है।
व्यक्ति ने अपनी शारीरिक एवं मानसिक सुख-सुविधा के जितने साधन जुटाए है, वे साधन ही उसके लिए अशांति के कारण बन रहे है। उसकी शारीरिक कामनाएं जब तक पूर्ण नहीं होती, मानसिक अशांति बनी रहती है। जब तक शरीर से आसक्ति रहेगी इच्छाएं और आकांक्षाएं जन्म लेती रहेगी। किसी की भी सारी इच्छाएं और आकांक्षाएं आज तक न तो पूर्ण हुई है औ न ही कभी पूर्ण होगी। यह एक दुष्चक्र है, जिसमें व्यक्ति निरंतर गतिशील बना रहता है। यह गतिशीलता व्यक्ति में तनाव उत्पन्न करती है। उसकी मानसिक एवं शारीरिक स्वस्थता को विकृत देती है। ____ कायोत्सर्ग शरीर के प्रति हमारी आसक्ति को कम करते हुए शरीर से आत्मा के भेद को स्पष्ट करता है। भेद विज्ञान की साधना दृढ़ हो जाने पर व्यक्ति की दैहिक-कष्ट या दुःख सहन करने की क्षमता बढ़ जाती है, उसकी यह धारणा बन जाती है कि ये दुःख और कष्ट शरीर को हो रहा है, मुझे अर्थात् आत्मा को नहीं और यह शरीर तो एक दिन विनाश को प्राप्त होने वाला है, शरीर के प्रति मेरी ममत्व बुद्धि ही मेरे तनावग्रस्त होने का कारण है।
ऐसा सोचना भी व्यक्ति को तनावमुक्त बना देता है। जैन साधना में कायोत्सर्ग का महत्त्व बहुत अधिक है। “प्रत्येक अनुष्ठान के पूर्व कायोत्सर्ग की परम्परा है"65 कायोत्सर्ग का महत्व बताते हुए आवश्यकनियुक्ति में लिखा है -"कायोत्सर्ग सब दुःखों से मुक्त करने वाला है, सब दुःखों से छुटकारा देने
64. आवश्यकनियुक्ति, 1548-उदधृत श्रमणसूत्र पृ.-99 65. जैन बोद्ध गीता का तुलनात्मक अध्ययन पृ.-404
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org