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आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्य्यन में इन प्रतिमाओं को श्रावक जीवन की विभिन्न कक्षाएं कहा गया है और यह वर्णित किया गया है कि -"साधना की इस सातवी कक्षा तक आकर गृहस्थ उपासक अपने वैयक्तिक जीवन की दृष्टि से अपनी वासनाओं एवं आवश्यकताओं का पर्याप्त रूप से परिसीमन कर लेता है। 70
भोजन करने में मनुष्य का उद्देश्य मात्र पेट भरना, स्वास्थ्य-प्राप्ति या स्वाद की पूर्ति ही नहीं है अपितु मानसिक व चारित्रिक विकास करना भी है। आहार का हमारे आचार, विचार एवं व्यवहार से गहरा संबंध है। आहार का हमारे मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। अतः मनोनिग्रह के लिए आहार का संतुलित होना आवश्यक है।
उदाहरण के लिए- जो लोग मांसाहारी भोजन करते है उनमें करूणा, दया की भावना बहुत कम होती है। मनुष्य की भावना ही उसके कर्मों को प्रभावित करती है। "मांसाहार से मस्तिष्क की सहनशीलता की शक्ति का व स्थिरता का हृास होता है। वासना व उत्तेजना बढ़ाने वाली प्रवृत्ति पनपती है, क्रूरता एवं निर्दयता बढ़ती है। 11 माांसाहार द्वारा कोमल भावनाओं का नष्ट होना, व स्वार्थ परता, निर्दयता आदि भावनाओं का पनपना ही आज विश्व में बढ़ते हुए तनाव का मुख्य कारण है।
किसी बालक को शुरू में ही मांसाहार कराया जाता है, तो वह उसे सहज भाव से ग्रहण नहीं कर पाता है, उस वक्त उसके अन्दर जो दया भाव है उसे वह मारता है किन्तु इसका उसे पता भी नहीं चलता है। बड़े होते-होते उसके अंदर से दया, करूणा एवं प्रेम की भावना समाप्त हो जाती है और उसके हदय में अपने स्वार्थ के लिए हिंसा, घृणा, क्रूरता आ जाती है। मांसाहार वासनाओं को वैसे ही भड़काता है जैसे आग में घी डालने पर आग और भड़क
70 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. सागरमल जैन, पृ.321 71 शाकाहार या मांसाहार – फैसला आपका, गोपीनाथ अग्रवाल, पृ. 31
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