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विकल्पों को जन्म देता है या जिस ध्यान से चैत्तसिक स्तर पर व्यक्ति और अधिक विचलित हो जाता है, वे आर्त्त व रौद्रध्यान हैं। इसके विपरीत जिन ध्यानों से मन की चंचलताएँ, वासनाएँ, दुःख आदि शांत होते हैं, वे धर्म एवं शुक्ल ध्यान हैं । ध्यानशतक में कहा गया है।
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अट्टं रूपं धम्मं सुक्कं झाणाइ तत्थ अंताई निव्वाणसाहणाइं भवकारणमट्ट - रूद्दाई | 15 | | 113
अर्थात् आर्त्त और रौद्रध्यान संसार के कारण हैं और धर्मध्यान और शुक्लध्यान निर्वाण के हेतु हैं। आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान राग-द्वेष जनित होने से तनावग्रस्तता के कारण हैं, इसलिए इन्हें अप्रशस्त या अशुभ ध्यान कहा गया है। जबकि धर्मध्यान व शुक्लध्यान कषाय भाव से रहित होने से तनावमुक्ति के हेतु हैं, इसलिए इन्हें प्रशस्त या शुभ ध्यान कहते हैं ।
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यहाँ हमें सर्वप्रथम आर्त्त और रौद्र का अंतर समझ लेना होगा। चाह, चिंता, इच्छा–आकांक्षा, अपेक्षा आदि से युक्त चित्तवृत्ति आर्त्तध्यान है । दूसरे शब्दों में कहें तो इष्ट का वियोग होने पर, अनिष्ट का संयोग होने पर, इच्छित की प्राप्ति न होने पर तथा अनइच्छित की प्राप्ति होने पर चित्त में जो आकुलता - व्याकुलता उत्पन्न होती है, वही आर्त्तध्यान है । यही आकुलताव्याकुलता तनाव उत्पन्न करती है । इष्ट के संयोग में राग और अनिष्ट के संयोग में द्वेष की वृत्ति होती है, जब तक वह वृत्ति प्रतिक्रिया का रूप नहीं लेती तब तक चित्त- विक्षोभ नहीं होता है, किन्तु जब द्वेष की वृत्ति प्रतिक्रिया का रूप ले लेती है, तब वह आर्त्तध्यान को रौद्रध्यान में परिवर्तित कर देती है। आर्त्तध्यान की उत्पत्ति राग से होती है और रौद्रध्यान की उत्पत्ति द्वेष से होती है। द्वेषजन्य प्रतिक्रियाएँ जब दूसरे के अहित के विचार से जुड़ जाती है, तो वे रौद्रध्यान का रूप ले लेती हैं।
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ध्यानशतक, श्लोक - 5, जिनभद्रगणिकृत
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