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तनावग्रस्त रहता है। एक ओर रोगादि से प्राप्त वेदना को दूर करने की चिंता रहती है, तो दूसरी ओर पाँचों इन्द्रियों की लालसा का पूर्ण करने की इच्छा रहती है, जो मस्तिष्क को अशांत बनाए रखती हैं। चिंता, दुःख, परेशानी, वेदना अशान्तता तनाव के ही उपनाम हैं। आर्त्तध्यान वह ध्यान है जिसमें आध्यात्मिक शक्तियाँ क्षीण होती हैं और तनाव उत्पन्न करने वाली स्थितियों का विकास होता हैं। कहते हैं कि चित्त की एकाग्रता के लिए जितना ध्यान किया जाता है, वह सफल होता है और एक दिन मन अपनी चंचलता के स्वभाव को छोड़कर शांत या एकाग्रचित्त हो जाता है। इस प्रकार आर्त्तध्यान जितना अधिक होगा तनाव भी उतने ही बढ़ते जाएंगे। आर्त्तध्यान और तनाव का सह-सम्बन्ध बताते हुए यह भी कह सकते हैं कि जो लक्षण आर्त्तध्यान के हैं, वही लक्षण एक तनावग्रस्त व्यक्ति में भी पाए जाते हैं। आर्त्तध्यान के लक्षण रूदन, शोक, विलाप, चिड़चिड़ाहट, चिंता आदि हैं। तनावग्रस्त व्यक्ति में भी ये ही सारे लक्षण पाए जाते हैं। वह भी दुःखी एवं चिन्तित रहता है। व्यक्ति जब इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाता तो उसका स्वभाव चिड़चिड़ा एवं क्रोधी हो जाता है। इष्ट के वियोग पर रूदन, विलाप आदि करता है। ध्यानशतक में आर्त्तध्यान के ये ही चार लक्षण निरूपित करते हुए कहा गया है कि आर्त्तध्यानी के आक्रन्दन, शोचन, परिवेदन और ताड़न आदि लक्षण होते हैं। 121 उववाईसूत्र में भी आर्त्तध्यान के चार लक्षण बताए गए हैं 1. कंदणया, 2. सोयणय, 3. तिप्पणया, और 4. विलवणया ।
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कंदणया अर्थात् रूदन करना, सोयणया का अर्थ है शोक करना अर्थात् चिंता करना । तिप्पणया का आशय आंसू गिराना या दुःखी होना है और विलयण से तात्पर्य विलाप करना है।
जिस व्यक्ति में उपरोक्त चारों लक्षण पाए जाते हैं, वह आर्त्तध्यानी होता है और जो व्यक्ति आर्त्तध्यानी होता है वह नियमतः तनावग्रस्त होता है । . आर्त्तध्यानी हीन भावना से ग्रस्त रहता है । वह स्वयं अपने जीवन को तनावग्रस्त
121 ध्यानशतक
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