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योग को परिभाषित करते हुए लिखा है कि -चित्तवृत्ति का निरोध ही 'योग' है।107 जैन-परम्परा में सामान्यतया मन, वाणी और शरीर की गतिशीलता को ही योग कहा जाता है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि योग-निरोध ध्यान का लक्ष्य है। जैन-परम्परा में मानसिक, वाचिक और शारीरिक क्रियाओं को योग कहा गया है और इनमें भी मन की प्रधानता होती है। जब मनयोग का निरोध हो जाता है, अर्थात् मन की चंचलता समाप्त हो जाती है तो वचनयोग व काययोग स्वतः ही नियंत्रित हो जाते हैं। निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि 'योग' शब्द का अर्थ जैन-परम्परा और योगदर्शन में भले ही अलग-अलग हों, किन्तु दोनों का लक्ष्य चित्तवृत्ति का निरोध ही है। तनावमुक्ति के लिए मन की चंचलता को समाप्त करना आवश्यक ही है। योगदर्शन यह मानता है कि चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है।109 योग शब्द का एक अर्थ जोड़ना भी है।'10 इस दृष्ठिा से डॉ. सागरमलजी के अनुसार आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला को योग कहा गया है।1 इसी अर्थ में योग को तनावमुक्ति या मोक्ष अवस्था को प्राप्त करने का साधन मान सकते हैं।
वस्तुतः ध्यान-साधना और योग-साधना दोनों ही तनाव की जन्मस्थली मन की वृत्तियों को समाप्त कर तनावमुक्त होने के लिए एक साधन बन जाती है। योग एवं जैनदर्शन दोनों ही साधना की प्रक्रिया तो मन की चंचलता को समाप्त करना ही मानते हैं। जिस प्रकार हवा को रोकना कठिन है, सागर की लहरों को रोकना कठिन है, उसी प्रकार मन में उठती विकल्प रूपी लहरों को रोकना भी कठिन है, फिर भी आत्म जागृति की अवस्था में यह सम्भव है। ध्यान
107 गीता - 6/34 108 कायवाड्.मनः कर्म योगः। - तत्त्वार्थसूत्र -6/1 109 योगश्रियत्त वृत्ति निरोधः । योगसूत्र-1/2, पतजंलि 110 'युजपी योगे' -हेमचन्द्र धातुमाला, गण-7 ।। जैन साधना पद्धति में ध्यान, -डॉ. सागरमल जैन, पृ.13
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