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कहने का तात्पर्य यही है कि जिसने मन को जीत लिया, मन वश में कर लिया अर्थात् मन को अमन बना लिया वह अपने स्व स्वभाव को स्वतः ही प्राप्त कर लेता है, क्योंकि मन के अमन होते ही आत्म स्वभाव में स्थित होने के कारण कषाय, राग-द्वेष और कामनाओं रूपी बाह्य शत्रुओं को जीतने के कारण तनाव समाप्त हो जाते है। इनके समाप्त होते ही शांति की तरंग उठती है, जो आत्मा को तनावमुक्त अवस्था में ले जाती है अर्थात् स्वभावदशा में लाती है। व्यक्ति को सुख - दुःख में किसी प्रकार का आत्मभान नहीं रहता है। वस्तुतः पूर्णतः तनावमुक्ति के लिए सुख-दुःख दोनों से ऊपर उठ कर आत्म शान्ति को प्राप्त करना आवश्यक है ।
ध्यान और योगसाधना से तनावमुक्ति
जैन धर्म में मुक्ति का एक साधन ध्यान और योग साधना है। जैन परम्परा में ध्यान पद्धति प्राचीनकाल से ही प्रचलित है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि जितने भी जैन आगम हैं, उन सभी में ध्यान के स्वरूप का विवेचन मिलता है। दूसरे खुदाई के दौरान जैन तीर्थंकरों की जो प्राचीन प्रतिमायें मिली हैं, वे सभी ध्यानमुद्रा में ही प्राप्त होती हैं। 101 ऋषिभाषित में तो स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शरीर में जो स्थान मस्तिष्क का है, साधना में वही स्थान ध्यान का है। 102 उत्तराध्ययनसूत्र में श्रमण जीवन की दिनचर्या का विवरण प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि प्रत्येक श्रमण साधक को दिन और रात्रि के दूसरे प्रहर में नियमित रूप से ध्यान करना चाहिए। ध्यान को मोक्ष प्राप्ति अर्थात् समग्र दुःखों से मुक्ति का साधन माना गया है, जब ध्यान समस्त दुःखों से मुक्ति दिला सकता है, तो वह व्यक्ति के तनावमुक्त जीवन जीने का साधन क्यों नहीं
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101 Mohanjodaro and Indus civilization, John Marshall, Vol. I, Page-52
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103 उत्तराध्ययनसूत्र
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