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जाती है। वासनाएँ जब पूरी नहीं होती है, या उनकी तृप्ति में बाधा आती है तो क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध में सही गलत का विवेक समाप्त हो जाता है और जहां विवेक नहीं होता, वहां मानवीय गुणों का विनाश अपनी जगह बना लेता है। मांसभक्षण हर धर्म में निषिद्ध है। हर धर्म के शास्त्र चाहे हिन्दुओं के हो या मुसलमानों के हो, जैनों के हो या बौद्धों के हो, मांसाहार को केवल स्वास्थ्य के असंतुलन का ही नहीं, वरन् मानसिक असंतुलन का भी कारण माना जाता है। मांसाहारी हिंसक होते है और हिंसक व्यक्ति पूरे विश्व में अशांति और तनाव उत्पन्न कर देता है। महाभारत में लिखा है -"जो सब प्राणियों पर दया करता है, और मांसभक्षण कभी नहीं करता, वह स्वयं भी किसी प्राणी से नहीं डरता है। वह निरोग और सुखी होता है। 72 जो मनुष्य किसी भी प्राणी को पीड़ा या क्लेश नहीं देता है वह सबका हित चिन्तक पुरूष अनंत सुख का भोगता हुए तनावमुक्त रहता है!
जैनदर्शन में तो यहां तक कहा गया है कि मांसभक्षण करने से व्यक्ति हर जन्म में दुःखी होता है। स्थानांग सूत्र के चौथे स्थान में वर्णन है कि :चउहिं ठाणेहिँ जीवा ऐरतियत्ताए कम्म पकरेंति, तं जहामहारम्भताहे महा
परिम्यहयाते पचिदियवहेणं कुणिमाहारेणं । 13 अर्थात् महारम्भ करने से अत्यन्त ममत्व करने से, पंचेन्द्रिय जीवो के वध से, मांस-भक्षण करने से प्राणी नरक में जाते है। वहां निमेष मात्र के लिए भी उन्हें सुख नसीब नहीं होता है।"
जैन धर्म दर्शन में तो रात्रि भोजन का भी निषेध है क्योंकि रात्रि में जीव हिंसा अधिक होती है और हमें पता भी नहीं चलता है कि भोजन के साथ कई सूक्ष्म जीव जीवित या मृत दशा में हमारे अंदर चले जाते है जो हमारे स्वास्थ्य को बिगाड़ सकते है। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी आहार-विवेक आवश्यक है।
2 महाभारत, अनुशासनपर्व - श्री प्यारचंद जी, पृ. 13 " स्थानांगसूत्र - चौथा स्थान
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