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आत्म चेतना तक जाती है और इससे होने वाली अनुभूति व्यक्ति को तनावों के मूल कारणों तक ले जाती है, तब ही वह तनावों के कार्य कारण रूप चक्रव्यूह को तोड़ने में सफल होता है।
आचारांग में कहा भी है5- जो क्रोध को देखता है, वह मान को देखता है। जो मान को देखता है, वह माया को देखता है। जो माया को देखता है वह लोभ को देखता है, जो लोभ को देखता है, वह प्रिय देखता है। जो प्रिय (राग) को देखता है, वह अप्रिय हो देखता है। जो अप्रिय (द्वेष) को देखता है, वह मोह को देखता है, जो मोह को देखता है, वह गर्भ को देखता है, जो गर्भ को देखता है, वह जन्म को देखता है, जो जन्म को देखता है, वह मृत्यु को देखता है, जो मृत्यु को देखता है, वह दुःख को देखता है और जो दुःख को देखता है, वह क्रोध से लेकर दुःख पर्यन्त होने वाले इस चक्रव्यूह को तोड़ देता है।" इस चक्रव्यूह को तोड़ने वाला व्यक्ति पूर्णतः तनावमुक्त स्थिति को प्राप्त करता है। भगवान् महावीर ने आचारांगसूत्र में कई बार यह कहा है कि मन में लज्जा के भाव से अपनी वृत्तियों को प्थक-पृथक कर के देख।
जब हम देखते हैं, तब सोचते नहीं और जब सोचते हैं, तब देखते नहीं है। 'इच्छाएँ कामनाएँ उठती है तो उन्हें मात्र देखने का प्रयास करो, उनसे जुड़ो मत। क्रोध आएगा तो उसी क्षण देखो कि क्रोध आ रहा है। स्थिर होकर अपने भीतर देखो, अपने विचारों को, शरीर में होने वाले प्रकम्पनों को देखो। जो भीतर की गहराईयों को देखते-देखते भीतर के सत्य को देख लेता है, उसका दृष्टिकोण ही बदल जाता है। वह सम्यदृष्टि वाला हो जाता है और जो सम्यदृष्टि वाले होते हैं, वे तनावमुक्त जीवन जीते है।
तनावमुक्त जीवन का अर्थ है – मन और शरीर की एक दिशा होना। इसे हम एकाग्रता कह सकते है। एकाग्रता तब होती है जब मन निर्मल एवं शांत हो।
35. आचारांग सूत्र-3/4/167 36. आचारांग- प्रथम अध्याय
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