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सम्यक् दिशा में ले जाती है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र का बोध अनुप्रेक्षा से ही होता है। दशवैकालिक चूर्णि में लिखा है
"अणुपेहा णाम जो मणसा परियट्टेइ णो वायाए"55 अर्थात् पठित व श्रुत अर्थ का मन से (वाणी से नहीं) चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। सर्वार्थसिद्धि में लिखा है – शरीर आदि के स्वभाव का पुनः-पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।
जब हम किसी भी धारणा का बार-बार चिन्तन कर, उसके वास्तविक रूप को समझते है या शरीर आदि के स्वभाव को समझकर उससे आत्मा का भेद जानते हैं, तो वह चिन्तन सम्यक् चिन्तन होता है, वही तनावमुक्ति प्रदान करता है। अनुप्रेक्षा के प्रयोग से व्यक्ति राग-द्वेष मय मान्यताओं से हटकर सत्यता को स्वीकार कर लेता है।
तनावमुक्ति के लिये सत्य को जानने के लिए प्राचीन जैनग्रन्थों तथा जैनयोग-सिद्धांत और साधना में बारह अनुप्रेक्षाएं बताई गई है।" 1. अनित्य अनुप्रेक्षा 2. अशरण अनुप्रेक्षा
संसार अनुप्रेक्षा अन्यत्व अनुप्रेक्षा एकत्व अनुप्रेक्षा
अशुचि अनुप्रेक्षा 7. आस्रव अनुप्रेक्षा 8. संवर अनुप्रेक्षा 9. निर्जरा अनुप्रेक्षा 10. लोक अनुप्रेक्षा
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55. दशवै. चूर्ण पृ. 26 56. सर्वार्थसिद्धि-912/409 57. जैन योग सिद्धांत ओर साधना पृ. 213
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