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2. स्वस्तिकासन :
भारतीय संस्कृति में स्वस्तिकासन को शुभ चिन्ह माना है। जैन परम्परा में अष्ट मंगलों में यह भी एक है। यह आसन करते समय शरीर की आकृति स्वस्तिक जैसी हो जाती है। इसलिए इसे स्वस्तिकासन कहा है।
विधि – आसन पर स्थिरता से दोनों पाँवों को मोड़कर बैठें। दाहिने पाँव के पंजे को बाँए घुटने और जंघा के बीच इस प्रकार स्थापित करें कि पंजे का तलवा जंघा को स्वर्श करे। दाहिने पैर को उठाकर बाई पिंडली और साथल के बीच जमाएँ। मेरुदण्ड सीधा रखें। बाएं हाथ की हथेली को नाभि के पास रखें। फिर दाहिने हाथ को उसके ऊपर स्थापित करें। यह ब्रह्म मुद्रा कहलाती है।
समय और श्वास प्रश्वास - इस आसन में लम्बे समय तक ठहरा जा सकता है। तीन घण्टे एक आसन में बैठने से आसन-सिद्धि कहलाती है।
लाभ – लम्बे समय तक सुखपूर्वक बैठा जा सकता है। मन शांत और स्थिर, मेरुदण्ड पुष्ट और वायु रोग की निवृत्ति होती है।
3. पद्मासन :
पद्मासन ध्यान-आसनों में आता है। साधना की दृष्टि से इसका विशेष महत्व है। सिद्धासन और पद्मासन ऐसे आसन है जिनमें मेरुदण्ड स्वयं सीधा
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