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मामूली सा अंतर हो सकता है, फिर भी भारतीय दर्शन में इनमें एक क्रम माना जा सकता है।
तनाव के कारणों में इच्छाओं व आकांक्षाओं का प्रमुख स्थान है। जैनधर्म के अनुसार सम्पूर्ण जगत् में जो कायिक, वाचिक और मानसिक कर्म (दुःख/तनाव) हैं, वह काम भोगों की अभिलाषा से उत्पन्न होता है। " अंगुत्तरनिकाय में लिखा है --भूतकाल, भविष्यकाल और वर्तमानकाल के विषयों के सम्बन्ध में, जो इच्छा है, वही कर्मों (तनाव) की उत्पत्ति का कारण है। 92 आचारांग में लिखा है कि –जिसकी कामनाएँ (इच्छाएँ) तीव्र होती है, वह मृत्यु से ग्रस्त होते हैं और जो मृत्यु से ग्रस्त होता है, वह शाश्वत सुख से दूर रहता है। यहाँ मृत्यु से तात्पर्य दुःख, जन्म-मरण या संसार भ्रमण से है और शाश्वत सुख का अर्थ है मोक्ष अर्थात् पूर्णतः तनावमुक्ति ।
___कार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा है कि -"संकप्पमओ जीओ, सुखदुक्खमयं हवेइ संकप्पो" अर्थात् जीव संकल्पमय है और संकल्प (इच्छा) सुख-दुःखात्मक है। जब हम इच्छाओं और आकांक्षाओं को तनावग्रस्तता का हेतु बताते हैं तो हमारे सामने एक प्रश्न खड़ा होता है कि इच्छाएं और आकांक्षाएं व्यक्ति को कैसे तनावग्रस्त बनाती हैं। इन्द्रियों के बहिर्मुख होने से जीव की रूचि बाह्य विषयों में होती है और इसी से उनको पाने की कामना और संकल्प का जन्म होता है।94 वस्तुतः इन्द्रियों के विषयों से सम्पर्क होने पर व्यक्ति को कुछ विषय अनुकूल और कुछ विषय प्रतिकूल प्रतीत होते हैं। अनुकूल विषयों की पुन:-पुनः प्राप्ति हो और प्रतिकूल विषयों को दूर रखने की इच्छा जाग्रत होती है। जब तक व्यक्ति की यह इच्छा पूर्ण नहीं होती है, वह तनावग्रस्त हो जाता है। जैनाचार्यों ने भी मन और इन्द्रियों के अनुकूल विषयों की पुनः प्राप्ति की प्रवृत्ति को ही इच्छा कहा
" उत्तराध्ययनसूत्र, 32/19 92 अंगुत्तरनिकाय, 3/109
गुरू से कामा, तओ से मारस्स अंतो,
जओ से मारस्स अंतो, तओ से दूरे। - आचारांगसूत्र-1/5/1 94 कार्तिकेयानुप्रेक्षा – 184
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