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कि ऐसा व्यवहार उसके मिथ्या अहंकार का पोषण करेगा और मान-कषाय का पोषण जितना अधिक होगा उसका तनाव स्तर भी उतना ही बढ़ेगा।
व्यक्ति अपनी मान-प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए दूसरों की निंदा करता है, अपनी गलती कभी भी स्वीकार नहीं करता है, उसके मस्तिष्क में हलचल मची रहती है, मन सदैव विचलित रहता है। उपर्युक्त सभी स्थितियाँ तनाव उत्पन्न करने वाली हैं और तनावयुक्त अवस्था में, मान से ग्रस्त वह व्यक्ति विनय, स्वाभिमान, सदाचार, ईमानदारी सरलता आदि गुणों को भूल जाता है। मान कषाययुक्त व्यक्ति की मनोवृत्तियाँ दूषित हो जाती है, अर्थात् उसका मन मलिन हो जाता है। वह फरेब, बेईमानी, दूसरों का अपमान करना, उन्हें दुःख देना आदि दुराचरण अपना लेता है। ऐसा व्यक्ति न तो स्वयं तनावमुक्त हो सकता है, न ही दूसरों को तनावमुक्त रहने देता है। मान कषाय से युक्त व्यक्ति दूसरों को अपने अधीन रखना चाहता है। स्वयं को स्वाधीन मानकर दूसरों पर अत्याचार करता है। मान कषाय व्यक्ति के विनय, सद्बुद्धि, सरलता आदि गुणों को घात करने वाला है।
ज्ञानार्णव में शुभचन्द्राचार्य का कथन है –“अभिमानी विनय का उल्लंघन करता है और स्वेच्छाचार में प्रवर्तन करता है। योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्य ने मानजन्य हानियाँ बताई हैं – मान विनय, श्रुत और सदाचार का हनन करने वाला है। मान कषाय धर्म, अर्थ और काम का घातक है। विवेकरूपी चक्षु को नष्ट करने वाला है। जहाँ व्यक्ति में विवेकशून्यता आ जाती है, वहां तनाव में वृद्धि हो जाती है। व्यक्ति जितना अधिक अहंकारग्रस्त होगा, वह उतना ही अधिक तनावग्रस्त होता चला जाएगा। उसकी मानग्रस्तता की तीव्रता व मंदता की अवस्था के आधार पर प्रथम कर्मग्रन्थ में मान कषाय के निम्न चार स्तर बताए हैं -
" ज्ञानार्णव, सर्ग-9, गाथा-53 78 योगशास्त्र - प्र. 4, गाथा-12
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