________________
138
कोटि का समझा जाता है। अपनी आन-बान-शान पर या अपनी उपलब्धियों पर गर्व या घमण्ड करना ही मान है।
मान के कई समानार्थी शब्द होते हैं। जैन आगमों में मान को निम्न बारह रूपों में स्पष्ट किया गया है 1मान -
अपने किसी गुण पर अहंवृत्ति का होना मान है। जब व्यक्ति के समक्ष उससे अधिक कुशल व्यक्ति आ जाता है तो तब उसके मन में, जो ईर्ष्या का भाव उत्पन्न होता है, उसे मान कषाय या तनाव की स्थिति कहते हैं। व्यक्ति अपने को सर्वश्रेष्ठ स्थान पर रखने के लिए दूसरों की निंदा करता है, उसके दोषों को उजागर करता है, यह भी मान कषाय ही है।
मद -.
शक्ति का अंहकार मद कहलाता है। अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने हेतु व्यक्ति बिना कोई विचार किए दूसरों को चुनौतियाँ देता है। समवायांगसूत्र में मद के आठ भेद बताए हैं। 2 1. जाति मद – जातियाँ चार हैं, जो मनुष्य कर्म के आधार पर निर्मित हुई
हैं। जैसे अध्ययन–अध्यापन करनेवाला ब्राह्मण, सबकी रक्षा करने वाला क्षत्रिय, व्यापार करने वाला –वैश्य एवं सबकी सेवा करने वाला -शूद्र है। यह मात्र कार्यों के आधार पर किया गया विभाजन है, किन्तु मनुष्य ने इन वर्गों में उच्च एवं नीच की अवधारणा बना ली है। उच्च कहलाने वाली जति में जन्म लेने पर उसका अहंकार करना जाति-मद है। कोई निम्न जाति का व्यक्ति जैसे शूद्र अगर उच्च जाति के अधीन न रहे तो उच्च जाति वाले उसे अपना अपमान समझते हैं।
71 भगवतीसूत्र - 12/43 2 समवाओ/समवाय - 8/सू.-1
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org