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स्तर पर दूसरे के प्रति क्रोध से आक्रान्त बना रहता है। वह मन ही मन झोधित होता है, अर्थात् तनाव में रहता है और यह तनाव दीर्घकाल तक बना रहता है। जिस प्रकार गीली मिट्टी में सूखने के बाद दरारें पड़ जाती है, अगले वर्ष की वर्षा आने तक नहीं भरती, उसी प्रकार एक बार किसी पर क्रोध आ जाए तो दीर्घकाल तक मन में क्रोध रूपी तनाव की अग्नि जलती रहती है जो उसे क्षण भर के लिए भी तनावमुक्त या शांति का अनुभव नहीं करने देती है।
3. प्रत्याख्यानावरण क्रोध -
यह क्रोध अल्पकालिक और नियन्त्रण योग्य होता है। 'बालू रेत में बनी रेखा के समान प्रत्याख्यानावरण क्रोध है। जैसे बालू में खिंची लकीर हवा के झोंकों से धीरे-धीरे मिट जाती है, उसी प्रकार प्रत्याख्यानी क्रोध भी धीरे-धीरे शांत हो जाता है। अप्रत्याख्यानी कषायों में भी मानसिक तनाव होता है और वह दीर्घकाल तक बना रहता है। जबकि प्रत्याख्यानावरण में उसकी अवधि अल्प होती है। व्यक्ति का तद्जन्य मानसिक तनाव अल्प समय में ही शांत हो जाता
है।
4. संज्जवलन क्रोध -
यह क्रोध मन के अवचेतन स्तर पर क्षणभर के लिए आता है और शांत हो जाता है। जिस प्रकार पानी में खिंची लकीर उसी क्षण मिट जाती है, उसी प्रकार जब किसी के प्रति क्रोध का भाव आ जाए, किन्तु उसी क्षण उसकी निरर्थकता जानकर उससे विरत हो जाए, वह संज्वलन क्रोध है। यह चैत्तसिक स्तर पर अवचेतन में आकर समाप्त हो जाता है। इसमें तनाव भी क्षणिक काल के लिए ही होता है।
व्यक्ति को क्रोध आना स्वाभाविक है, किन्तु उस पर प्रतिक्रिया करना या नहीं करना यह व्यक्ति के मनोबल पर आधारित है। मानसिक चेतना जितनी
68 प्रथम कर्मग्रन्थ/ या / कषाय – पृ. 44 69 प्रथम कर्मग्रन्थ /या / कषाय - पृ. 44
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