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अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसका निग्रह सम्भव है। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि -आँधी की तरह चंचल मन मुक्ति के इच्छुक एवं तप करने वाले मनुष्य को भी कहीं का कहीं ले जाकर पटक देता है। जो पुरुष मन का निरोध नहीं कर पाता, उसके कर्मों की अभिवृद्धि होती रहती है। अतएव जो मनुष्य तनावों से अपनी मुक्ति चाहते हैं, उन्हें समग्र विश्व में भटकने वाले लम्पट मन को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए।
यह निश्चय है कि सभी प्रकारों के तनावों का जन्मस्थान मन है, किन्तु अगर इस मन को सम्यक् प्रकार से नियंत्रित किया जाए तो यह विमुक्ति का मार्ग भी खोल देता है।
जैनदर्शन में हेमचन्द्राचार्य ने मन की चार अवस्थाएँ मानी हैं -
1. विक्षिप्त मन, 2. यातायात मन, 3. श्लिष्ट मन और 4. सुलीन मन। 1. विक्षिप्त मन :- यह मन की चंचल अवस्था है, इसमें वह विषयों में भटकता रहता है। यह मन की अस्थिर अवस्था है। इस अवस्था में मानसिक शान्ति नहीं रहती है, क्योंकि यह सदैव ही विषयों के प्रति आसक्त बना रहता है। यह चित्त सदैव बाह्य पदार्थों से जुड़ा होता है, जिसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति तनावग्रस्त रहता है। 2. यातायात मन :- यह चित्त आवागमन से युक्त है, कभी वह बाहर जाता है, कभी अन्दर जाता है। जब वह बाहर से जुड़ता है तो तनावों को जन्म देता है
और जब वह अंतर्मन से जुड़ता है तो वह तनावों से मुक्ति की ओर जाता है, किन्तु पूर्वाभ्यास के कारण वह पुनः संकल्प-विकल्प में उलझ जाता है। जब-जब वह स्थिर होता है तनावमुक्ति का अनुभव करता है और जब-जब बाहर की ओर दौड़ता है, तनावयुक्त होता है।
20 वही, 6/35 । योगशास्त्र, 4/36-39 22 योगशास्त्र - 12/2
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